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नहीं मिलती थी . वे शारीरिक परिश्रम के मी अयोग्य थे । एक तो शिक्षित और अशिक्षित दोनो बेकार हो रहे थे और दूसरे देश का धन विदेश जा रहा था। देश अार्थिक संकट में पड़ गया । भारतेन्दु श्रादि साहित्यकार अगरेजी, राज्य के प्रति भक्ति
प्रकट करते हुए भी उसकी आर्थिक नीति के विरुद्ध लिखने पर वाध्य हुये । असुविधा __ जनक खचीली अदालतों, उत्कोचनाही पुलिस के अत्याचार, ऊँचा लगान और उसके सग्रह के कठोर नियम, शस्त्र और जंगल-कानून आदि ने किसानों के दुख को दूना कर दियो । जनता की एतद्विषयक प्रार्थनाओं को सरकार ने उपेक्षा की दृष्टि से देखा । सन् १८६८-६९ मे घोर अकाल पड़ा, लगभग बीस लाख व्यक्ति मरे । सन् १८७७ ई० में दक्षिण में भयकर दुर्भिक्ष पड़ा। लार्ड लिटन ( १८७६-८० ई० ) अकालपीड़ितों की सहायता का उचित प्रबन्ध न कर सके । लाई एलिान के समय में ( १८६४-६६ ई. ) पश्चिमोत्तर प्रान्त, मध्य प्रदेश, बिहार और पंजाब में अकाल पड़े । १६०० ई० में गुजरात में भी अकाल पड़ा । इस प्रकार अकाल पर अकाल
और उसके ऊपर महामारी, टैक्स, बेकारी अादि ने जनता के हृदय को छलनी बना डाला । साहित्यकारों ने देशवासियों के इन कष्टो का अनुभव किया और उन अनुभूतियों की अपनी रचनाओं में अभिव्यक्ति की। १ ।
अङ्गरेजो के श्राधिपत्य-स्थापन के समय हिन्दू धर्म शिथिल हो चुका था । अशिक्षित भारतीय जनता अज्ञान अन्धविश्वास में संवेष्ठित थी। दुर्बल और प्राणशून्य हिन्दू जाति की धार्मिक और सामाजिक अवस्था शोचनीय थी। सारा देश तन्द्रा में
था। ईसाइयों ने निर्विरोध धर्म-प्रचार प्रारम्भ किया । शिक्षा, धन, विवाह, पदाधिकार आदि के लोभी जनों द्वारा उनके इस कार्य का स्वागत हुआ। वो तो पन्द्रहवीं शती के प्रारम्भ से ही ईसाई-धर्म-प्रचारकों ने भारत में अाना आरम्भ कर दिया था किन्तु प्रथम तीन सौ वर्षों में उनके प्रचार का हिन्दी-साहित्य पर कोई प्रभाव न पड़ा । जब मन् १८१३ ई० में उन्हें 'विल्यफोस ऐक्ट' के अनुसार भारत में धर्मप्रचार की आज्ञा मिल गई, तब उन्होंने इस कार्य में तीव्र दक्षता दिग्बलाई । धर्म१ अायो विकराल काल भारी है अकाल पर्यो,
पूरे नाहिं खर्च घर भर की कमाई में । कौन भांति देवें टैक्स इनकम लैसन और, पानी की पियाई, लैटरन की सफाई में । कैसे हेल्थ साहब की बात कछू कान करें, परे न सुसीत भूमि पौर्ने धारपाई में