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[ ४ ] किर । प्रेमघन और अम्बिकादत्त व्यास ने अपने 'भारत सौभाग्य' नाटकों में देश की का दृश्य दिखाया। 'ब्राह्मण' ने 'कांग्रेस की जय' 'देशी कपड़ा' आदि निबन्ध छ राधाचरण गोस्वामी ने 'हमारा उत्तम भारत देश' और बाबू बालमुकुन्द गुप्त ने 'स्व अान्दोलन' पर रचनाएँ की
श्राओ एक प्रतिज्ञा करें, एक साथ सब जीवें मरे ।
अपनी चीजें श्राप बनाओ, उनसे अपना अङ्ग सजाओ ।' पडित प्रतापनारायण मिश्न के "तृप्यन्ताम्" और श्रीधर पाटक के 'ब्रडला स्वागत देश की करुण दशा का हास्य-मिश्रित तथा श्रोअपूर्ण शैली में बहुत सुन्दर वर्णन पाटक जी की रचनाओं में राष्ट्रीयता का स्वर विशेष रूप से स्पष्ट है--
बन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अभिमानी हों। बांधवता में बंधे परस्पर परता के अज्ञानी हो । निन्दनीय वह देश जहाँ के देशी निज अज्ञानी हो।
सब प्रकार परतंत्र, पराई प्रभुता के अभिमानी हो । इसी स्वतन्त्रता-भाव को एक पग और आगे बढ़ाते हुये द्विवेदी जी ने कहा था--
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है ॥
उन्नीसवीं शताब्दी के वैज्ञानिक प्राविष्कारों ने भारत ही नहीं सारे विश्व उद्योग-धन्धों में क्रान्ति उपस्थित करदी । पुतलीघरों तथा अन्य कल-कारखाना निर्माण ने श्रमिक वर्ग के कारीगरों की जीविका छीन ली। सड़को, नहरो, रेल, डाक अादि ने विदेशो की दूरी कम करदी। सन् १८६६ ई० में स्वेज नहर के जाने से योरप का भारत मे व्यापारिक सम्बन्ध और सुगम हो गया । योरपीय विदेशी वस्तुओं ने भारतीय बाजार पर अधिकार कर लिया, यन्त्रों से स्पर्धा न सकने के कारण देशी कारीगर कृषि की ओर झुके । खेती की दशा भी शोच थी । जन-संख्या में वृद्धि, उर्वराशक्ति के क्रमशः हासे, ईतियों और भीतियों कारण उनकी आर्थिक दशा बिगड़ती जा रही थी । शिक्षितों को अनुक्न नौक
१ स्फुट-कविता'-१६१६ ई० में संकलन-रूप में प्रकाशित । २ कानपुर के टैनिक पत्र प्रताप के शीर्ष पर छपने वाला सिद्धान्त-वाक्य