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। ५५० जरा देर के लिए समझिए, आप षोडपी कारी हैं, (क्षमा कीजिए असभ्यता को हम ग्रामीण अनारी है)। मान लीजिए नयन आपके कानो तक बढ़ आये है,
पीन-पयोधर देख आपके कुञ्जर-कुभ लजाये है ।' द्विवेदी जी की भापा और भावव्यञ्जना के सात्विक और शिष्ट होने पर भी उनकी कविता में एकाध स्थलो पर ग्राम्यता और अश्लीलता का दोघ श्रा ही गया है। अधोलिखित पद में वे अभिमानी व्यक्ति के मुखदर्शन की अपेक्षा वृषभ के अंडकोष का अवलोकन करना अधिक श्रेयस्कर समझते हैं---
मैं कुबेर, मैं ही सुरगुरु हूँ, मेरा ही सब कहीं प्रमाण, यह घमण्ड रखने वालों का मुखदर्शन है पानिधान । तपेक्षा हे वृपभ ! तुम्हारा पीवर अंडकोप समुदाय,
अवलोकन करना अच्छा है, सच कहते हैं भुजा उठाय ।। अपनी उन्नीसवीं शती की रचनायो, विशेषकर 'विहार-बाटिका', 'स्नेहमाला और 'ऋतुतरंगिणी' में ही द्विवेदी जी ने बरबस अलङ्कार-योजना की चेष्टा की है । 3 'ऋतुतरंगिणी मे तो प्रायोपान्त ही शब्दालङ्कार ठूस ठूस कर भरे गए हैं । कही कहीं अलङ्कारसौंदर्य लाने के लिए भाव की निर्दयतापूर्वक हत्या कर दी गई है । भावाभिव्यञ्जन में असमर्थ यमकच्छटामयी पदावली का एक उदाहरण निम्नाक्ति है
सुविच कैरव कैरव राजहीं। रुत सना रसना रस लाजहीं | सुनत सारस सारस गान ही बधिक बान नवान न तानही ।।४
१. द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ४३८ । २. , , ,, २७६ । ३. उदाहरणार्थ----
सुधा वाहा थाहा सुधल अवगाहा हरि नबै । प्रिया भाई लाई हियहि सुख पाई छकि जबै ॥ कही बामा श्यामा मुदित अभिरामा रस भरे । गही बाँही नाहीं करि कि कर जाहीं कर करे ॥
'द्विवेदी-काव्यमाला'. पृ० २२ । द्विवेदी ' पृ० १३