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यदि पुस्तक को पादरिप्पणी में शब्दार न दिया गया हाता तो उपर्युक्त पक्तियों में निहित कवि क अभिप्रा का अन्तयामी 7 अतिरिक्त पोर कोई न समझ पाता । यह अलङ्कारदोप उनकी प्रारंभिक हिन्दी-रचनायां तक ही सीमित है। इस अलङ्कारप्रेम का कारण मंस्कृत-कवियो, विशेष कर अश्वघाटीकार पंडितराज जगन्नाथ, और हिन्दी-कवि केशवदास का प्रभाव ही है । द्विवेदी जी की संस्कृत और खडीवोली की कविताओं में अनायास ही सन्निविष्ट उत्प्रेक्षा, अर्थान्तरन्यास, श्लेप, अनुप्रास आदि अलंकार अपने नाम को वस्तुत: सार्थक करते हैं, यथा--
क मामनाहत्य निशान्धकार पलाय्य पापः किल याम्यतीति ।
ज्वलन्निवक्रोधभरेगा भानुरंगाररूपः सहसाविरासीत् ।।' अन्धकार ने सूर्य का कभी अपमान नहीं किया, वह कभी भागा नहीं और सूर्य उसके प्रति क्रोध मे कभी जला नहीं । फिर भी हेतु प्रेक्षा के सहारे कवि ने विलीन होते हुए अन्धकार और प्रभातकालीन रक्तिम सूर्य का रमणीयार्थप्रदिपादक चित्राकन किया है। ज्या ज्या चन्द्रमा को छाया बढ़ती जा रही थी त्या त्या सूर्य का तेज मन्द पडता जा रहा था। इस दृश्य को लेकर द्विवेदी जी ने निम्नाकित पद मे मुन्दर अर्थान्तरन्यास किया है--
छायां करोति वियति स्म यदा यदेन्दुः,
श्यामप्रभां विननुते स्म नदा नढार्कः । श्रापत्सु देवविनियोगकृतारमासु,
धीरोपि याति वदने किल कालिमानम् ॥ अयोनिग्वित पक्रियों में श्लेष और अनुप्राम का मनोहर चमत्कार है--
सुरम्यम्पे ! रमराशिरंजिने ! विचित्रवर्णाभरणे ! कहाँ गई ?
अलौकिकानन्द्रविधायिनी ! महाकवीन्द्रकान्ते । कविते । अहो कहाँ ॥3 पहली पंक्ति में 'र', 'ण' और 'घ' की तथा दूसरी मे 'क' और 'न' की श्रावृत्ति के कारण पढ में अधिक लालिन्य पा गया है। कान्तारू पिणी कविता के लिए, श्लिष्ट विशेषणों का प्रयोग भी मनोहर है । जिस प्रकार कान्ता सुरम्यरूपा (ग्मणीय रूपवाली), रसराशिरंजिता (सुन्दर अनुराग के भावों से भरी हुई), विचित्रवर्णाभरणा (रंगविरंगे अाभूपणो से सजी हुई) अलौकिकानन्दविधायिनी (असाधारण अानन्द देनेवाली) और कवीन्द्रकान्ता (कवियों के काम
१. द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० १६६ ।
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