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युग को मसात् किया था इसीलिए उनकी आलोचनात्रा में उन+ व्यक्तित्व व अतिरिक्त उनका युग भी बोल रहा है। वह युग प्राचीन और नवीन के सघन का था । नवीन क प्रति उत्कट श्रौत्सुक्य होते हुए भी उसके मन में प्राचीन के प्रति दुर्दमनीय निष्ठा थी । बह नृतन गवेषणाओं को कुतूहलपूर्वक सुनकर उनकी तुलना में अपने पूर्व पुरुषों के ज्ञानविज्ञान की भी जॉच कर लेना चाहता था। यह संघर्ष राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, माहित्यिक आदि सभी दिशाओं में व्याप्त था । द्विवेदी जी का आलोचक भी अपने युग का प्रतिनिधि है क्योंकि उसने अपनी आलोचनाओ में प्राच्य और पाश्चिमात्य दोनों ही पद्धतियों का समावेश किया है।
युग-निर्माता आलोचक द्विवेदी की प्रवृत्तियों के दो पक्ष हैं। एक ओर तो प्राचीन कवियों की आलोचना, उनकी विशेषता, प्राचीन और पाश्चात्य काव्यसिद्धान्तों का निरूपण आदि हैं। दूसरी ओर अस्तव्यस्तता अनिश्चितता, दिशालक्ष्य - उद्देशशून्यता, अध्ययन, संकुचित दृष्टि, चिन्तन के प्रभाव, साहित्यसर्जन के लिए आपेक्षिक सच्चाई और नैतिकता की कमी, भाषा की निर्बलता, व्याकरण की अव्यवस्था, हिन्दीभाषियों की विदेशी प्रवृत्ति, मातृभाषा के प्रति निगदर, लोभ, मस्ती ख्याति, धन के लिए साहित्य-संसार मे बॉली आदि बातों को दूर कर हिन्दी पाठकों के ज्ञानवर्द्धन का प्रयास है । द्विवेदी जी के समक्ष हिन्दी मे आलोचना की कोई परम्परागत आदर्श प्रणाली नहीं थी । भूमिका में वर्णित आलोचनाएं नाममात्र की आलोचनाएं थी । द्विवेदी जी को अपना मार्ग निश्चित करने मंडी कठिनाई हुई । उन्होंने हिन्दी का हित करने के लिए मस्कत, बँगला, मराठी. अँगरेजी आदि के साहित्यों का कठोर अध्ययन और चिन्तन किया । हिन्दी-साहित्य ने भारतीय आलोचक की दोषवाचकप्रणाली की अवहेलना कर दी थी। हिन्दी के प्रथम वास्तविक आलोचक द्विवेदी मे उसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी । माहित्य का मुन्दर भवन बनने के पहले वहाँ का झाड़-खाड काट डालना आवश्यक था । निर्माता द्विवेदी की प्रारंभिक आलोचनाओं को युग की आवश्यकताओं ने स्वयं ही संहारात्मक बना दिया
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१८६६ ई० के आरम्भ में 'काशीपत्रिका' में द्विवेदी जी की 'कुमारसम्भव भाषा' की समालोचना प्रकाशित हुई । उसका अन्तिम भाग 'हिन्दोस्थान' में छपा । 'ऋतुसंहार भाषा' की समालोचना १८६७ ई० के नवम्बर मे १८६८ ई० के मई तक 'वेंकटेश्वर - समाचार' मे छपी । १६०१ ई० मे जब 'हिन्दी कालिदास' की समालोचना प्रकाशित हुई तब उसमें 'मेघदूत' और 'रघुवंश' की समालोचनाएं भी जोड़ दी गई। हिन्दी साहित्य में किसी एक ही रचनाकार पर लिखी गई यह पहली आलोचना पुस्तक थी । लाला मीताराम के अनुवादी ने महाकवि कालिदाम क काव्य सौन्दय पर पानी पर दिया या साहित्य पुजारी
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