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का यह भी कर्तव्य था कि वह सर्वसाधारण को अनुवाद की निकृष्टना और बालिकाम की कविता की उन्कृष्टता के विषय में सावधान कर देता। इन नालोचनाया से यह सिद्ध है कि
आलोचक द्विवेदी ने मस्कृत-काव्यो का मच्चाई के माध अध्ययन किया है और उनकी प्रास्तोचानाश्रा के सिद्धान्त-पद का गाधार मस्कत माहित्य है । 'कुमार नभव, 'ऋतुसंहार,' मेघदत' और 'रघत्रंश' की अालोचनाओं के प्रारम्भ में क्रमशः 'वासवदत्ता' ('सुबन्धु') 'श्रीनं ठारित' और 'शृंगारतिलक' (अंतिम दो में) के नोक द्विवेदी जी ने उद्वत किए हैं। शास्त्राचक्रमण,' 'उपमा का उपमर्द' 'अर्थ का न' 'भाव का अमात्र दोषों की यह प्रणाली भी मंस्कृत की है। श्रालीक का पाडित्यपूर्ण व्यक्तित्व भीनहीं व्यक्त है।
जनता को पथभ्रष्ट होने से बचाने के लिए द्विवेदी जी ने मची और उचित बालाचाना की ! उम ममय पत्र-पत्रिकायां का नया युग था, पत्री और पुस्तका के नये पाठक तथा लेखक थे सभी की बुद्धि अपरिपक्क और सभी को पथप्रदर्शक की श्रावश्यकता थी । युग के मानयिक माहिन्य की इस मॉग को द्विवेदी जो ने स्वीकार किया । यही कारण है कि उनकी अधिकाश रचनाएँ पत्रिकायों के दवा में ही प्रकाशित हुई । वे मन्त्र की अभिव्यंजना करके उपेक्षा, निन्दा, अनादर, गाली आदि सभी कुछ महने को प्रस्तुत थ ! उनकी आलोचना की प्रमस्व विशेरता हिन्दी के प्रति पूजाभाव, अमायिकता, आराधना
और तप में है। क्रोग अालोचक होने और अपनी मानना के बल पर युग का मानचित्र परिवर्तित कर देने मे कौडी-मुहर का-सा अन्तर है।
यह संयोग की बात थी कि द्विवेदी जी ने आलोचना का प्रारम्भ अनूदित ग्रन्थों गे बिया। भाषान्तर होने के कारण अालोचक हिवदी का मचा रूप उमन निम्बर नहीं पाया। मूलाग्रन्थों में वर्णित पात्र, स्थल, वस्तुवर्णन, शैली आदि को छोड़कर उन्हें यह देखना पढ़ा कि मूल का पूरा पृगग अन बाद हुआ है अथवा नहीं, कवि का भाव पृर्णनय तद्वत अाया है अथवा नहीं और भापान्तर की माया दापरहित तथा अनुवादक के अभीष्ट अर्थ की व्यंजक हुई है अथवा नहीं । उनका ध्यान भाषासंस्कार और व्याकरण की स्थिरता की अोर बरबस अाकृष्ट हो गया । हिन्दी का कोई भी आलोचक एक नाथ ही हिन्दी, संस्कृत, बंगला, मगठी, गुजराती, उर्दू अादि साहित्या का पंडित, सम्पादक, भाषासुधारक और युगनिर्माता नहीं हुआ । इसीलिए द्विवेदी जी अद्वितीय है ! वही कारण है कि वे अाज के समालोचक के द्वारा निर्धारित श्रेणी-विभाजन को स्वीकार करके अपनी पालो का विशिष्ट वर्गों म प्रतिष्ठित न कर सब याद श्राधनित्र