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। ५७ । समालोचक की कसौटा पर द्विवेदा जी की आलोचनाए मोना नहीं ऊँचा तो इसम द्विवेदी जी का कोई अपराध नहीं, वस्तुतः अालोचक की कसौटी ही गलत है। वह भ्रान्तिवश यह मान बैठा है कि श्रालोचनाएं प्रत्येक देशकाल में एक ही रूप और शैली ग्रहण करेंगी। वह इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि साहित्यिक समालोचना मौखिक या चित्रमय भी हो सकती है, टीका, भाष्य, मूक्ति, शास्त्रार्थ आदि का भी रूप
धारण कर मकती हैं । वह अपने ही युग को अपरिवर्त्य और प्राप्त समझ कर दूसर युग __ की भूमिका, आवश्यकताओं, व्यक्तिया और विशेषताओं को समझने में असमर्थ है।
द्विवेदी जी की आलोचनाओं में दो प्रकार के द्वन्द्व की परिणति है | एक तो बाह्य-जगत में नवीन और प्राचीन, पूर्व और पश्चिम का द्वन्द्व है और दूसरा अन्तर्जगत में कटु सत्य तथा कोमल सहृदयता का द्वन्द्र है। इन्ही संघर्षों के अनुरूप द्विवेदो जी की अालोचनाएं भी दी धाराओं में बंट गई है । एक धारा का उद्गम है महृदयना पार प्राचीनता के प्रति प्रेम जिसमें बालोचना का विषय संस्कृत-साहित्य है । दूसरी थारा नवीनता और मत्व के आकर्षण से निकली है जिसमें प्रायः सम्पादक और मुधारक द्विवेदी ने हिन्दी-साहित्य और उसमे सम्बन्ध रस्मने वाली बाता पर अालोचनाएं की
है। पूर्व और पश्चिम के ममन्वित सिद्धान्तनिरूपण की तीसरी धारा भी कही कहा __दृष्टिगोचर हो जाती है । यद्यपि द्विवेदी जी की आलोचनाए हिन्दी-पुस्तकी, हिन्दी
कालिदाम' और 'हिन्दी शिक्षावली ततीय भाग' को लेकर प्रारम्भ हुई तथापि उनकी भूमिकारूप में द्विवेदी जी के मस्तिष्क म मस्कृत-माहिल्य का अध्ययन उपस्थित था। यह बात ऊपर कही जा चुकी है।
'कालिदाम की निरंकुशता' कालिदास की समीना का एक एकागो चित्र है । उसकी रचना का उद्देश केवल मनोरंजन था । इस सम्बन्ध में स्वर्गीय पं० रामचन्द्र शुक्ल का निम्नाकित कथन विचारणीय है
“द्विवेदी जी की तीसरी पुस्तक 'कालिदाम की निरंकुशता' में भाषा और व्याकरगा के ब व्यतिक्रम इकट्ठे किए गए है जिन्हें संस्कृत के विद्वान् लोग कालिदास की कविता म बताया करते है। यह पुस्तक हिन्दी वाला के या संस्कृत वालो के फायदे के लिए लिखी गह पर ठीक ठीक नहीं समझ पन्ता ।