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पुस्तक के प्रारम्भ म हा अनक बार चतावना दे दी थी जिनके विचार हमार ही ऐस हैं उन्हीं का मनोरजन हम इस लेस स करना चाहते हैं इस पाप क्वल वाग्विलास ममझिए । यह केवल आपका मनोरंजन करने के लिए है ।११ प्रस्तुत पुस्तक के भाव संस्कृत-टीकाकारों के हैं पर उनकी उपस्थापनशैली द्विवेदी जी की है । कालिदास में द्विवेदी जी की अतिशय श्रद्धा होने पर भी इतना बवंडर उठा क्योकि दोपदर्शन की प्रणाली हिन्दी-संमार के लिए एक अपरिचित वस्तु थी।
सस्कृत-सादिन्य का अध्ययन तथा परिचय कराने की भावना और मासिकपत्र क के लिए मामयिक निबन्ध लिखने की आवश्यकता ने द्विवेदी जी को नैषधचरितचर्चा' और 'विक्रमाकदेवचरितचर्चा' लिखने के लिए प्रेरित किया । इन नालोचनाओं में द्विवेदी जी ने संस्कृत-साहित्य को ऐतिहासिक दृष्टि से देग्वने और पश्चिमीय विद्वानों के अनुसन्धान द्वान मान संस्कृतमम्बन्धी बातों से हिन्दी-मंमार को परिचित कराने का प्रयास पिया है । इन आलोचनाओं में विवेदी जी की ठो प्रवृत्तियों परिलक्षित होती है। पहली यह कि उनका सिद्धान्तपन्न मरकृत-माहित्य पर ही नहीं आश्रित है अापेतु उन्होंने पश्चिन के सिद्धान्ती पर भी विचार और स्वतन्त्र चिन्तन किया है । अतएव उनका अालोचना का प्रतिमान अपेक्षाकृत व्यापक, उदार और नवीन है । उनकी दूमरी प्रवृत्ति है कवि की कविता को सुन्दरतर बनाने की चेष्टा न करते हुए उसके उदाहरण पाठक के भामने रखकरके चुप हो जाना। सम्भवतः कविता के अच्छे नमूने' शीर्षक की देविकर ही शुक्ल जी ने श्राक्षेप किया है कि पंडितमंडली में प्रचलित रूढि के अनुसार चुने हुए श्लोकों की खूबी पर साधुवाद है । खरा सत्य तो यह है कि पद्य को गद्य में परिणत करके, काव्य को बुद्विप्रधान अाकार देकर, सौन्दर्य को तार्किकता और वाग्जाल का बाना पहना दन में ही आलोचना का चरम उत्कर्ष नहीं है। सीधी भादी उद्धरणाप्रणाली या मामान्य अर्थव्यंजक टीकापद्धति की भी हमारे जीवन मे आवश्यकता है और इसीलिए माहिल्य में उनका भी महम्म है।
आलाचनाजाल' स्वरूप और उद्देश में उपयुक्त चर्चाओ से भिन्न है। यह मन १६०१ और १६५७ ई० के बीच लिख गए निबन्धो का एक संग्रह है। प्रत्येक निबन्ध की अपनी विशेषता है । व भिन्न भिन्न अावश्कताओं को ले कर लिग्वे गाए हैं। उनकी बहुत कुछ ममीता विभिन्न पद्धतियों के सन्दर्भों में हो चुकी है। आगे चल कर जब द्विवेदी जी
१ कालिदास की निरंकुशधा' १०३ २ इमकी वर्षा माहित्यिक
में हा चुकी है