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कर सकी । द्विवीपादित सरस्वती ने हिन्दी मासिक पत्र व इस कला को दूर किया अद्भुत और विचित्र विनयों के आकर्षण व ग्राख्यायिकाओं की सरमता, आध्यात्मिक विपयों की ज्ञान-सामग्री, ऐतिहासिक विषयों की राष्ट्रीयता, कविताओं की मनोहरता और कातानंमित उपदेशों, जीवनियों के आदर्श चरित्रां, भौगोलिक विषयों में समाविष्ट देश-विदेश की जातव्य और मनोरंजक बातो, वैज्ञानिक विषय में वर्णित विज्ञान के आविष्कारी और उनके महत्व की कथाओं, शिक्षा-विषयों के अन्तर्गत देश की अवनत और विदेशों की उन्नत शिक्षा की समीक्षा, शिल्पादि विषयक लेखां में भारत तथा अन्य देशों की कारीगरी के निदर्शन, साहित्य-विषयों मे साहित्य के सिद्धान्तों, रचनाओं और रचनाकारों की ममालोचनाश्री, फुटकर विषय में विविध प्रकार की व्यापक बातों की चर्चा विनोद और यायायिका, हॅमी - दिल्लगी एवं मनोरंजक श्लोकों की मनोरंजकता, चित्रों के उदाहरण और कला, व्यंग्यचित्रां में हिन्दी-साहित्य की कुछ दुरवस्था के निरूपण आदि ने 'सरस्वती' बो सर्वागमुन्दर बना दिया !
द्विवेदी जी की संपादन- कला की सर्व-प्रधान विशेषता थी 'सरस्वती' की विविध विषयक सामग्री की समंजस योजना | फलक था, तूलिका थी, रंग थे, परन्तु चित्र न था । प्रतिभाशाली चित्रकार ने उनके कलात्मक समन्वय द्वारा सर्वांगपूर्ण चित्ताकर्षक चित्र कित कर दिया | इंट-पत्थर, लोह -लक्कड़ और चुने-गारे के रूप में विविध विषयक रचनाओं का ढेर लगा हुआ था । शिल्पो द्विवेदी जी ने उनके सुपमित उपस्थापन द्वारा 'सरस्वती' क भव्य मन्दिर का निर्माण किया । " श्राचार्य द्विवेदी जी के समन की सरस्वती का कोई अंक निकाल देखिए, मालूम होगा कि प्रत्येक लेख, कविता और नोट का स्थान पहले निश्चित कर लिया गया था। बाद में वे उसी क्रम में मुद्रक के पास भेजे गए। एक मी लेख ऐसा न मिलेगा जो बीन में डाल दिया गया सा मालूम हो । संपादक की यह कला बहुत ही कठिन है और एकाध को ही मित्र होती है । द्विवेदी जी को सिद्ध हुई थी और इसी में सरस्वती का प्रत्येक अंक अपने रचयिता के व्यक्तित्व की घोषणा अपने अग प्रत्यंग के सामंजस्य में देता है । मैंने अन्य भाषाओं के मामिका मे भी यह विशेषता बहुत कम पानी है और विशेष कर इसी के लिए मैं स्वर्गवासी पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी को
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५. सभ्यता -पिशाची सर्वनाशकारी हुई
६. परमोत्तम तार्थ
७. घुन
८. समालोचना
६. युक्तियुक्त
अन्य परियो में सार रमिते हूँ