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मनोवैचानिक फ्रायड के सिद्धान्ता का युग अमी नहीं पाया या अतएव द्विवेदी युग की कहानियों में मानव-मस्तिष्क की विशेष चीर-फाड नहीं हुई।
संवेदना की दृष्टि से द्विवेदी-युग की कहानिया के चार प्रधान वर्ग हैं-घटना-प्रधान, चरित्र-प्रधान, भाव-प्रधान और चित्र-प्रधान । प्रथम वर्ग की कहानियाँ घटनाओ की शृंखलामात्र हैं। किसी कल्पित, सुनी, पढी या देखी हुई घटना अथवा बटनाओं से अतिप्रभावित कहानीकार उसे व्यक्त किए बिना नही रह सका है। उस युग की प्रारम्भिक घटना प्रधान कहानियो मे अद्भुत तत्व की अधिकता है, यथा पूर्वोक्त 'भूतों वाली हवेली', 'भुतही कोठरी' आदि । किन्तु आगे चलकर कलात्मक घटना प्रधान कहानियों की रचना माधारण जीवन की श्राकर्षण घटनाओ को लेकर की गई है, उदाहणार्थ प्रेमचन्द की सुहाग की साडी', ' 'भूत'२ आदि । इस वर्ग की कहानियों में चरित, भाव आदि के विवेचन के कारण अाधुनिक कहानी कला के विकास के साथ ही घटनात्मकता का ह्रास होता गया है।
कहानीकला का सुन्दर रूप उस युग की चरित्र-प्रधान कहानियों में व्यक्त हुअा। ये कहानियाँ मुख्यतः दो प्रकार की हैं। पहला प्रकार उन कहानियों का है जिसके पात्रों में क्सिी कारणवश कोई अाकस्मिक परिवर्तन हो गया है और कहानी वहीं समाप्त हो गई है।
आरम्भ से लेकर परिवर्तन के पहले तक पात्रों का एक रूप मे चरित्र-चित्रण हुआ है और तत्पश्चात् उसका दूसरा रूप व्यक्त हुअा है, यथा 'अात्मराम' (प्रेमचन्द ), 'ताई'3 श्रादि । दूसरे प्रकार की चरित्र-प्रधान कहानियों का सौन्दर्य चरित्र के आकस्मिक विकास में न हो कर उसकी दृढ़ता असामान्यता और प्रभावोत्पादकता मे है, यथा 'उसने कहा था', 'खूनी',५ 'बूढी काकी' (प्रेमचन्द ), 'भिखारिन' (प्रसाद) श्रादि। इन कहानियो में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक चरित्र ही कहानी की घटनानी का मुख्य केन्द्र रहा है और उसके किसी एक पक्ष का उसका उद्घाटन करके कहानी समाप्त हो गई है। नायक या नायिका को ऐसी परिस्थितियो में इस कलात्मक रूप से चित्रित किया गया है कि उसकी अन्तर्हित विशेषताएँ अालोकित हो गई हैं । चरित्र को आकर्षक बनाने के लिये लेखक ने उसे भावुकता और मनोविज्ञान की दृष्टि से देखा है।
संवेदना के अनुसार द्विवेदी-युग की कहानियो की तीसरी प्रमुख कोटि भाव-प्रधान है। १ प्रभा', वर्ष ३, खंड १, पृष्ठ ३१ । २. 'माधुरी', वर्ष ३, खंड १,सं १ पृष्ठ ६ । ३. कौशिक, 'सरस्वती', वर्ष २१, खंड २ पृष्ट ३१ । ४. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, 'सरस्वती', भाग १६, खंड १, पृष्ठ ३१४ । ५ चतुरसेन शास्त्री, 'प्रमा' अनवरी १३२४ ई०