________________
थ गारिकता से अाक्रान्त थी लोग कविता के वास्तविक अय को नहीं समझ रहे थे भाषा श्रादि बहिरंगो को लेकर विवाद चल रहा था । ऊर्मिला-जैसी नारियों के प्रति उपेक्षा थी। सम्पादक, समालोचक, लेखक सभी अपने कर्तव्य के प्रति उदासीन थे। द्विवेदी जो ने टन वाना की ओर ध्यान दिया । हिन्दी की परिस्थितियो और आवश्यकताओं को दृष्टि में रखकर उन्होंने अालोचनाएं की। 'कवि बनने के सापेक्ष माधन', 'कवि और कविता', 'कविता', 'नायिका-भेद', 'कवियों की मिलाविषयक उदासीनता', 'उर्दूशतक', 'महिपशतक की ममीक्षा', 'श्राधुनिक कविता'. 'बोलचाल की हिन्दी में कविता', 'सम्पादको, ममालोचको तथा लेबको के कर्तव्य' श्रादि लेखों में स्थान स्थान पर साहित्य और अालोचना का शास्त्रीय विवेचन करते समय वे सचमुच ही श्राचार्य बन गए हैं।
___ उनकी दूसरी विशेषता यह है कि उनका सिद्धान्तनिरूपण मभी श्राले बनायो में यथास्थान बिग्बग हुया है। इसका कारण यह है कि उन्होंने संस्कृत-प्राचार्यों की भाति मिद्वान्तों को साव्य और लक्ष्य रचनाओं को माधन न मानकर लक्ष्य रचनाओं को भी मान्य और सिद्धान्तो को ही भाषन माना है । लेखक या उसकी कृति की आलोचना करते ममय जहा कही अपने कथन को प्रमाणित या पुष्ट करने की आवश्यकता पडी है वहा पर उन्होंने अपने या अन्य प्राचार्य के सिद्धान्तो का उपस्थापन किया है।'
उनकी सिद्वान्तमूलक अालोचनाओं की तीसरी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने मिद्वान्ता को किमी वाद के बन्धन में नहीं बाधा है। वे न तो भरत, विश्वनाथ आदि की भाँति रसवादी हैं, न मामहादि की भाति अलङ्कारवादी है, न वामन अादि की भाति रीतिवादी हैं न कुन्तक आदि की भाँति वक्रोकिवादी हैं, न आनन्दवर्द्धन, अभिनवगुप्त आदि की भाति ध्वनिवादी है, न पंडितराज जगन्नाथ की भाति चमत्कारवादी हैं और न पश्चिमीय समीक्षाप्रणाली से प्रभावित अालोचक की भांति अन्तःसमीक्षावादी हैं। उनकी आलोचना मे सभी बादो के मार का समन्वय है । उन्होने अपनी अालोचनायो मे व्यवहारबुद्धि मे काम लिया है, किन्तु कोरे उपयोगितावादी भी नहीं है। उन्होने किसी वाद का खडन का नेत्रव्यापार भी व्यर्थ है। जो लोग 'इन्दर-सभा और गुलेबकावली' आदि खेल, जो पारमो थियेटर बाले आजकल प्रायः खेलते हैं, देग्नने जाते है उन्हे अपना हानि-लाभ सोचकर वहा पगरना चाहिए।"
'नाट्यशास्त्र' पृ० ५७ । १. उदाहरणार्थं, कालिदास के ग्रन्थों की आलोचना करते हुए ये लिखते हैं- 'जिस साहित्य में समालोचना नहीं वह विटपहीन महीरुह के समान है। उसे देखकर नेनानन्द नहीं होता। उसके पाठ और परिशीलन से हदय शीतल नहीं होता वह नीरस मास म होता है "
कालिदास और उनकी कविता' पृ १५१