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कल्पद्रुम अतु न दास कडिया का भारती भूपण अयाध्या मह उपा याय का रम कलस श्रादि । इस पद्धति म मद्धातनिरूपण ही प्रधान और उदाहृत रचनाए गाण है । अतएव यह पद्धति वस्तुतः पालोचना की पीठिका है।
'रसार जन', 'नाट्यशास्त्र' श्रादि बालोचनाएं द्विवेदी जी ने प्राचार्यपद्धति पर की है। उनकी प्राचार्यपद्धति और संस्कृत की परम्परागत प्राचार्यपद्धति में रूप का ही नहीं अात्मा का भी अन्तर है । मिद्धान्त का निरूपण करते समय उन्होंने संस्कृत-प्राचार्यों की भाति मगुण या दुष्ट रचनाओ का न तो उद्धरण दिया है और न उनका गुणदोपविवेचन ही किया है यत्र तत्र अाए हुए एक दो उदाहरण अपवादस्वरूप है । ' द्विवेदी जी की प्राचार्यपद्धति पर की गई अालोचनाओं की पहली विशेषता यह है कि उन्होंने हिन्दी-विद्यापीठ के वास्तविक प्राचार्यपद से ही सिद्धान्तसमीक्षा की है । छन्द-अलंकारादिनिदर्शक के अासन से कोरा सिद्धान्तनिरूपण ही उनका ध्येय नहीं रहा है। नाटक के क्षेत्र मे यथार्थ नाट्यकला से अनभिज्ञ नाटककारो और 'इन्द्रमभा', 'गुलेवकावली' श्रादि में रुचि रखने वाले दर्शको को प्रशस्त पय पर लाने के लिए उन्होंने 'नाट्यशास्त्र' की रचना की 13 हिन्दी कविता अतिशय १. 'ग्मज्ञरंजन' में 'रामचरितमानस पृ०५१.५२.५३ और 'एकान्तावासी योगी' पृ० ४५ के उद्धरण। २ क “छन्द, अलंकार, व्याकरण आदि तो गौण बातें हुई उन्हीं पर जोर देना अविवक्ताप्रदर्शन के मिवा और कुछ नहीं।"
विचार-विमर्श', पृ० ४५ । "ये सब पूर्वोक्त भेद हमने, यहां पर बाचको के जानने के लिए दिया तो दिए हैं, परन्तु हमारा यह मत है कि हिन्दी में नाटक लिखने वालो के लिए इन सब भेदी का विचार करना आवश्यक नहीं । इन भेदों का विचार करके इन में से किमी एक शुद्ध प्रकार का नाटक लिखना इस समय प्रायः असम्भव भी है। देश, काल और अवस्था के अनुसार लिग्वे गये सभी नाटक, जिनमें मनोरंजन और उपदेश मिले प्रशंसनीय हैं। थे चाहे हमारे प्राचीन आचायो के मारे नियमों के अनुकूल बने हो चाहे न बने हो उनमे लाभ आवश्य ही होगा। इसमें यह अर्थ न निकालना चाहिए कि नाट्यशास्त्र के प्राचायों में हमारी श्रद्धा नहीं है। हमारे कहने का तात्पर्य इतना ही है कि ये सब जटिल नियम उस समय के लिए थे जिम ममय भरत और धनजय आदि ने अपने ग्रंथ लिग्वे हैं । इस समय उनको यदि कोई परिवर्तितदशा में प्रयोग करे, और ऐमा करके, यदि वह सामाजिको का मनोरंजन कर सके, तथा, अपने खेल के द्वारा वह सदुपदेश भी दे सके, तो कोई हानि की बात नहीं।"
नाट्यशास्त्र', पृ० २६ ! ३."नाट्यकला का फल उपदेश देना है। इसके द्वारा ननोरजन भी होता है और उपदेश भी मिलत है। चाहे जेसा नारक हो और चाहे जिसने उमें बनाया हो उसमे कोई न कोई शिन अवश्य मिननी चहिए यदि ऐमान रा तो नारकार का प्रयन व्यर्थ है और दर्शको