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________________ शमा और मैथिलीशरण गुप्त की कविताए सकलित या , अधिकाश कविताए स्खला बाला का ही थीं । काव्य-भाषा की दृष्टि से द्विवेदी-युग के तीन विभाग किए जा सकते हैं-१६०३ ई० से १६०६ ई. तक, १९१० ई० से १९१७ ३० तक और १९१७-१८ ई० से १६२५ ई० तक । नागरी प्रचारणी सभा के कला भवन में रनित 'मरस्वती' की हस्तलिखित प्रतिया और तत्कालीन विभिन्न पत्रिकाओं तथा पुस्तकों की भाषा से सिद्ध है कि १९०६ ई. तक खडी बोली का मजा हुआ रूप उपस्थित नहीं हो सका। काव्य मापा का सुधार करने में द्विवेदी जी को गद्य-भाषा संशोधन की अपेक्षा कहीं अधिक घोर परिश्रम करना पड़ा था। भाषा की यह दुरवस्था १९०६ ई० तक ही विशेष रही । 'कविता कलाप' में उसका कुछ सुधरा हुया रूप प्रस्तुत हुआ है । उसमे शब्दो की तोड़ मरोड बहुत ही कम की गई । उनकी कवितानो में खड़ी बोली का व्याकरण-सम्मत और धारा प्रवाह रूप प्रतिष्ठित हुा । १६१० ई० मे 'जयद्रथ बध' मे रोज, प्रसाद और माधुर्य से पूर्ण खड़ी बोली का श्रेष्ठ रूप उपस्थित हुआ। तत्पश्चात 'प्रिय प्रवास' और 'भारत-भारती' के प्रकाशन ने खड़ी बोली के विरोधियों को सदा के लिए चुप कर दिया। १९१७ ई० मे 'सरस्वती' में 'साकेत' के अश प्रकाशित होने लगे। इसी वर्ष 'निराला' ने अपनी 'जुही की कली' लिखी। इसी वर्ष के पास पास मे पंत और प्रमाद की कविताएं भी समाहत होने लगी थीं। इस अवस्था मे द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा में दो प्रकार के परिवर्तन हुए । एक तो लाक्षणिक, ध्वन्यात्मक और चित्रात्मक शब्दों का प्रयोग बढने लगा और दूसरे हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त आदि की कविताओं में हिन्दी के मुहावगं और कहावतो का भी विशेष प्रयोग हुआ। अभिनिवेशपूर्वक विचार करने से द्विवेदी-युग की काव्य-भाषा में अनेक विशिष्टताएं परिलक्षित होती हैं । द्विवेदी-युग ने खड़ी बोली की प्रतिष्ठा के लिए परिस्थितियो के विरुद्ध कठिन संग्राम किया। उस युग के महान् कवियो को भी छन्द की मर्यादा का निर्वाह करने के लिए 'और' के स्थान पर 'श्री' तथा 'तक', 'पर', 'एक' श्रादि के लिए क्रमशः 'लो', प', 'यक श्रादि का प्रयोग करना पड़ा।' कही वे पदो के समास करने में संस्कृत या हिन्दी व्याकरण के नियमों का उल्लंघन करने के लिए बाध्य हुए।२ खड़ी बोली की प्रारम्भिक कविताओं में प्रसाद, अोज और माधुर्य की कमी है। आगे चल कर भाषा के मॅज जाने पर ये त्रुटियाँ अपवाद रूप में ही दिखाई पड़ीं ! उम युग की कविता की सर्वव्यापक विशेषता उसका प्रसाद गुण है । 'भारत भारती' अपनी प्रासादिकता के कारण ही , भिषामबास में इस प्रकार के प्रयोगों की बहुलता है
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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