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________________ शरीर की दृष्टि स य गात दो प्रकार क हैं-एकछदोमय और मिश्रछदोमय उदाहरणार्थ मरगौ नरक ठेकाना नाहिं मेर प्यारे हिंदुस्तान' आदि एक छदोमय और भारतवष' आदि मिश्र छन्दोमय हैं । द्विवेदी जी की कविता का पाचवा रूप गद्य-काव्य है । 'समाचारपत्रो का विराट रूप' और 'प्लेगगजस्तव' इसी रूप की रचनाएं हैं । इन गद्यकाव्यो में न तो सस्कृत-गद्यकाव्या की-सी कवि-कल्पना का उत्कर्ष ही है और न 'हिन्दी-गद्य-काव्यों कीमी धार्मिक भाव-व्यञ्जना । किन्तु ये हिन्दी-गद्मकाव्य के प्रारम्भिक रूप हैं अतएव इनका ऐतिहासिक महत्व है। द्विवेदी जी ने 'विनयविनाद' की रचना अभ्यासार्थ और स्वान्तःमुग्वाय ही की थी। तब हिन्दी की न्यूनतापृति की भावना उनमें न थी। हिन्दी के पराम्परागत दोहा का ही प्रयोग उन्होने उसमे किया। मराठी और संस्कृत के अध्ययन ने उन्हें संस्कृत-वृत्तों की ओर प्रवृत्त किया । 'विहारवाटिका' में हिन्दी के दोहा और हरिगीतिका के कुछ पदों के अतिरिक्त सारी पुस्तक संस्कृत के स्रग्धरा. शालविक्रीडित, द्रुतविलम्बित, वंशस्थ, शिग्वरिणी, भुजंगप्रयात मालिनी, मन्दाक्रान्ता, नाराच, चामर, वसन्ततिलका, उपजाति, उपेन्द्रवज्रा इन्द्रवज्रा और इन्द्रवंशा में ही हैं । 'स्नेहमाला' में उन्होंने फिर दोहोका ही प्रयोग किया किन्तु आगे चलकर 'महिम्नम्तोत्र' के अधिकाश पद शिवरिणी, मालिनी, भुजंगप्रयात, तोनर और प्रज्झाटिका छन्दों में ही रचे गये । 'ऋतुतरंगिणी' की रचना उन्होंने वर्मततिलका, मालिनी, द्रुतविलम्बित, इन्द्रवज्रा और उपेन्द्रवज्रा मे की : 'गंगालहरी' म मबेयो का ही विशेष प्रयोग हुश्रा किन्तु उनकी अागामी कृति 'देवीस्तुतिशतक' आद्योपान्त बमन्ततिलका में ही लिखी गई। उम् गणना का अभिप्राय केवल यह सिद्ध करना था कि अपने कविजीवन के प्रारम्भिक कान्त में द्विवेदी जी ने संस्कृत के छन्दो की ओर अपेक्षाकृत अधिक व्यान दिया था । उस युग की प्रवृत्ति की दृष्टि में यह बात अनुपेक्षणीय जंचती है । आगे चलकर भी उन्हाने शिवाष्टकम्', 'प्रभातवणनम्', 'काककूजितम्' यादि में भी गगात्मक छन्दो का प्रयोग किया। ब-नुतः छन्द के क्षेत्र मे द्विवेदी जी की देन गणात्मक छन्दों की दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी-माहित्य में केशवदास ने इस ओर ध्यान दिया था। उनके पश्चात् हिन्दी-कवियों ने छन्द की इस प्रणाली के प्रति विशेष प्रवृत्ति नहीं दिग्वलाई । द्विवेदी जी ने इन छन्दो का प्रयोग करके हिन्दी मे इनकी विशेष प्रतिष्ठा की । इस प्रकार प्रियप्रवास' आदि गणात्मकछन्दोमय काव्या की भमिका प्रस्तुत हुई । कवि द्विवेदी की अपेक्षा युगनिर्माता द्विवेदी ने इम दिशा में भी अधिक कार्य किया। संस्कृत-छन्दों के अतिरिक्त उन्होंने उर्दू, बंगला, अगरी शादि र तथा सत र छन्दों के प्रयोग और प्रचार लिए गिला कवियों को
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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