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। १०८ । प्रोत्साहित किया। उनके प्रयास के फलस्वरूप खड़ीबोली इन छन्दो की मुन्दरता से भी सम्पन्न हुई। इसकी प्रमाणसम्मत विवेचना 'युग और व्यक्तित्व' अध्याय मे आगे चलकर की गई है। भाषा की दृष्टि मे द्विवेदी जी के कविता-काल के तीन विभाग किए जा सकते हैं
क. १८८६ ई० से १८६२ ई० तक । ख. १८६७ ई० मे १६०२ ई० तक ।
ग १६०२ ई. के उपरान्त ।। 'विनयविनोद' (१८८६ ई०), 'विहारवाटिका (१८६० ई०), 'स्नेहमाला'(१८६० ई०), 'महिम्नस्तोत्र' (१८६१ ई०), 'नुतरंगिणी' (१८६१ ई०), 'गंगालहरी' (१८६१ ई०),
और 'देवीस्तुतिशतक' (१८६२ ई०) ब्रजभाषा की रचनाएँ है। उनका यह काल प्रायः अनुवादों का ही है । उस समय हिन्दी की काव्यभापा संक्रान्ति की अवस्था मे थी। भारतेन्दुकृत खड़ीबोली के प्रयोगो के पश्चात् श्रीधर पाठक आदि ने खडीबोली का व्यवहार प्रचलित रखा । अयोध्याप्रसाद खत्री ग्रादि के खड़ीबोली-अान्दोलन ने भी हलचल मचादी थी। तत्कालीन व्रजभाषा के कवि उसका कोई सर्वसम्मत आदर्श रूप उपस्थित न कर सके। इसका भी कुछ न कुछ प्रभाव द्विवेदी जी पर अवश्य पडा होगा। द्विवेदी जी ने संस्कृत-ग्रन्थो के अनुवाद प्रायः सस्कृत-छन्दों में ही किए । उनका हिन्दी-मापा और साहित्य का ज्ञान भी अपरिपक्क था अतएव उनकी उपयुक्त प्रारम्भिक रचनाओं की भाषा का रूप काव्यमय और निखरा हुआ नहीं है।'
द्वितीय काल में उन्होने ब्रजभाषा , खडी बोली और संस्कृत तीनो ही को कविता का माध्यम बनाया। १६०२ ई० में प्रकाशिन 'काव्यमंजपा' इसी प्रकार की कविताओंका संग्रह है।
१. क, यथा--- विधाता है कैसो रचत व्रय लोके किमि सुई ।
धर कैसी देही, सकल किन वस्तू निरमई ॥ कुतक है मूर्खा कहि सुइमि माया भ्रम परे । न जाने ऐश्वर्यो सकत नहिं जो खण्डन धरे ॥
___-'द्विवदी-काव्यमाला', प.. १६६ । ख दूषित भाषा के संबंध में द्विवेदी जी का निम्नांकित निबेदन अवक्षणीय है
"इसमें बहुत सा संस्कृत वाक्य प्रयोग होने से रोचकता में विरोध हुआ है परन्तु असाधारण छन्द होने के कारण नियतस्थान में शुद्ध हिन्दी शब्द की योजना नहीं हो सकी। इस न्यूनता का मुझे बडा खेद है।"
भूततरङ्गियी की भूमिका