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! १०६ । उनकी 'सस्कत पदावली विशेष प्रसन्न ध रावा हक तथा का पाचित है । सरस्वती -सम्पादनके पूर्व द्विवेदी जी ने भाषा-संस्कार की ओर कोई ध्यान नहीं दिया था इसीलिए उनकी खडीबोली की तत्कालीन रचनाओं की भाषा को वज, अवधी आदि के पुट ने विकृत कर दिया है १२ ४१०२ ई० में 'कुमारसम्भव-मार' के द्वारा उन्होने काव्य-भाषा के रूप में खडीबोली की विशेष प्रतिष्ठा की । यत्र तत्र ब्रजभाषा, अवधी या तोडे मरोड़े हुए शब्दो का प्रयोग उसके भट्त्व को घटा नहीं सकता। उनकी काव्य भाषा मे गुहावरो और कहावतो का अभाव-सा है । लानणिकना, ध्वन्यान्मकता या चित्रात्मकताका समावेश भी नगण्य ही है । तथापि हिन्दीकाव्य-भाषा के एकातपत्र मिहामन पर ग्बड़ीवाली को ग्रासीन कर देने का प्रायः समस्त श्रेय सम्पादक-द्विवेदी को ही है ।" उन्होंने स्वयं तो सरल, प्राजल, प्रवाह-युक्त और व्याकरणमम्मत खडोबोली में पद्यात्मक रचनाएं का ही, अपने आदर्श, उपदेश और प्रोत्साहन से अन्य कवियों को भी खडीवाली में कविता लिखने के लिए प्रेरित किया। इसका विस्तत पिवचन 'युग और व्यक्तित्व' अव्याय में यथास्थान किया गया है।
उन्नीसवीं शती के अन्तिम चरण मे, विविध अान्दोलनो के कोलाहल मे, भी संस्कारजन्य धार्मिक भावना ने नवयुवक द्विवेदी के हृदय को विशेष प्रभावित किया । भारतेन्दु-युग की धार्मिक कविता में भक्ति-कान की परम्परा का निर्वाह, जनता की धार्मिक भावना का प्रतिबिम्ब
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१. प्रभातवर्णनम्', 'समाचारपत्रसम्पादक स्तवः' आदि कविताएं उदाहरणीय हैं, यथा--
कुशेशयः स्वच्छजलाशययु
__ वधूमुग्वाम्सोजदले गहेषु । वनेषु पुष्पैः सवितुः सपय यां तत्पादस्पर्शनया कृतासीत् ॥
-द्विवेदी काव्यमाला', प.० १६६ । २. यथा- दिखा प.हे तव रम्वरूपता' अादि ।
-'द्विवेदी-काव्यमाला', प.० २६१ । क्यों तुम एकादश रुद्र अधोमुख सार ? हैं गये कहां हुंकार कठोर तुम्हारे ? ज्या तुमसे भी बलवान देवगण कोई जिसने तम सब की आज प्रतिष्टा ग्बोई १ ॥
-द्विवेदी-काव्यमाला', प० ३१५ । ४ अथा- 'लगाय' सर्ग १, पद २६, 'समामी' सर्ग ६, पद ३, 'जाला' सर्ग २,
पद ४, 'टपकै है' सर्ग ५, पद ६७ आदि । ५ उसी काल में टेठ अवधी में लिखित और जनवरी ११०६ ई० की सरस्वती' में
प्रकाशित सरगौ नरक टकाना माहि भाषाविषयक एक है