________________
1 ११ । और उपदेशक का स्वर स्पष्ट है द्विवदा जा सस्त की काव्य सरसता और भावपूर्ण स्तुति की ओर विशप आकृष्ट हुए 'महिम्नस्तोत्र' और 'गगालहरी' इसी प्रवृत्ति के परिणाम हैं । संस्कृत के परमेश्वरशतक , सूर्यशतक, चंडीशतक आदि की पद्धति पर दैहिक तापों से मुक्ति पाने के लिए उन्होने १८६२ ई० में 'देवीस्तुतिशतक' की रचना की। धर्मों के परस्पर संघर्पकाल में भी वे मतमतान्तर और धार्मिक वाद-विवाद से दूर ही रहे। उनकी रचनाएँ युग की धार्मिक भावना मे परे और एकान्त भक्तिप्रधान है । उनम आराध्य देवता का स्तवन और उसके प्रति अात्मनिवेदन है । उनका यह निवेदन कहीं नो निजी कल्याण भावना से और कही लोककल्याण भावना से अनुपाणित है। उदाहरणार्थ 'देवीस्तुतिशतक' में उन्होने अपने अमंगलनाश के लिए और अन्य कवितायो में स्थान स्थान पर देश, जाति, समाज श्रादि के मंगल के लिए देवी-देवताओं एवं ईश्वर से प्रार्थना की है।'
शोकात बालविधवाओं की दयनीय दशा में अभिभूत द्विवेदी जी ने हिन्दू-धर्म की कठोर रूडियों के विरुद्ध लेखनी चलाई और विधवाविवाह को धर्मतंगत बतलाया २ टीकाधारी कट्टर कान्यकुब्जो ने क्रोधान्ध होकर उन्हे नास्तिक तक कह डाला । 'कथमहं नास्तिक' द्विवेदी जी के उसी अाहत हृदय की धार्मिक अभिव्यक्ति है । उस एक ही रचना मे उनी धार्मिक भावनाओं का समन्वय है। परम्परागत धर्माचार के नाम पर बालविधवानो को वलात् अविवाहित रग्बना समाज की मूढता, हठधर्म, दम्भ, धर्माडम्बर और नृशंसता है । ईश्वर की प्रसन्नता मूर्तिपूजन, गंगास्नान या सविध सन्ध्योपामन मे नहीं है । सत्यनिष्ठा मे ही मंत्रजप की पावनता, सजनी के प्रति भक्तिभाव में ही भगवदभक्ति, उनकी पूजा में ही देवपूजा और प्राणिमात्र के प्रति दया तथा परोपकार में ही निखिल ब्रतो का फल एवं शाश्वत शान्ति है। एकमात्र करुणा ही समस्त सद्धमो का सार है।
भारतेन्दुयुग से ही हिन्दीकवि-समाज असाधारण मानवता से साधारण समाज की ओर आकृष्ट होता आ रहा था। काल की इस अनिवार्य गति का प्रभाव द्विवेदी जी पर भी पड़ा । उन्होंने अपनी कविताओं द्वारा समाजसुधार का भी प्रयास किया । वे चाहते थे कि भारतीय समाज अपनी सभ्यता-संस्कृति को अपनावे, साहित्यकार सच्चे ज्ञान का प्रसार करें, समाज की १ यथा-- किए बिलम्ब प्रलय' पूरी इत हवै है तब पछित हो,
स्वकर बनाये को बिगारि के अंत ताप हिय पैहौं । नहि नहि अम्म कदापि करिहौ नहि, दयादृष्टि तुम हो, प्रतपाल यहि काल उबारन ऐहौ, ऐहो, ऐहो ।।
द्विवेदी
पृ० १८१ द्विवदी क प्र० २१०