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और अधिक मावामिन्यजक बना दिया है 37 स म भी कहीं कहीं काव्य की रमणीयता मिलती है ।१ यत्र तत्र सरम, रमणीय और कविनमय होने पर भी ये ऋविताएं द्विवेदीजी को कवि के उच्च प्रासन पर प्रतिष्ठित नही कर सकती । इनका वास्तविक महत्व छन्द, भापा श्रार विषय की दृष्टि से है।
विधान की दृष्टि न हि वेदी जी की कविता के पाच रूप है - प्रबन्ध, मुक्तक, प्रवन्धमुक्तक, गीत और रामकाव्य । उन्होंने खंडकाव्य या महाकाव्य के रूप में कोई काव्यरचना नहीं की। उनकी प्रबन्धात्मक कविताओं को पद्मप्रवन्ध कहना ही अधिक युक्ति-युक्त है। ये रचनाए भी दो प्रकार की है-कश्चात्मक और बस्तुबर्णनात्मक । कथात्मक पनाप्रबन्धी मे गद्य श्री लघु कहानी की भाति किसी नन्हे-मे यथार्थ या कल्पित कथानक का उपन्यापन किया गया है,यका 'सुतपंचाशिका' 'द्रौपदी-वचन-बाणावली, 'जंबुकीन्याय', टेसू की टॉग' आदि। ये पद्या खंडकाव्य के भी संक्षिप्त रूप है । वस्तुवर्णनात्मक पद्मप्रबन्धी मे बिना किमी कथानक के क्मिी उस्तु या विचार का प्रवन्धकाव्य की भॉति कुछ दूर तक निर्वाह किया गया है और फिर वित्ता समाप्त होगई है, यथा 'भारतदुर्मिक्ष' 'समाचारपत्रमपादकस्तव गर्दभकाव्य' 'कुमुदन्दरी' आदि । द्विवेदी जी की अधिकाश कविता इमी वर्ग की हैं। भाग्नेन्दुयुग और द्विवेदीयुग में पद्मप्रबन्धों की अपेक्षाकृत अधिकता का प्रधान कारण उन युगो की हलचल और खई बोली की अप्रौढता ही है । मुक्तकों की काव्यमाधुरी लाने के लिए अपरिपक्क रनडीबोली की गागर मे सागर भग्ना असम्भव था। खण्डकाव्य या महाकाव्य लिनने के लिए पांच अवकाश की प्रापश्यना थी । बहुधधो कवि इन परिस्थितियों के उपर न उठ मरे।
हिनंदी जी के कलाव्यविधान का दूसरा स्प मुक्तक हे । उनकी मुक्तक रचनाओं के मूल में दो प्रधान प्रवृत्तिया कान करती रही हैं-सौन्दर्यमूलक और उपदेशात्मक । 'विहारवाटिक', 'हामाला' आदि अनुवादो और प्रभात वर्णनम्', 'सूर्यग्रहणम्' आदि मौलिक रचनाओं का उद्देश्य सौन्दर्यनिरूपण ही था।२ शिवाष्टकम्', कथमहं नास्तिकः' आदि अात्म-निवेदनात्मक रवितानो मे भी भावसौन्दर्थ का चित्रण होने के कारण सौन्दर्यमुलक प्रवृत्ति की ही प्रधनता
१. अथा-----
२. यथा
राय कृष्णदास को लिखित पत्र १५, ६. ३० ।
'सरस्वती', भाग ४५, खण्ड २, संख्या ४, पृ० ४६६ । सुपत्र जम्बूफल गुच्छकारी, इलै उठी श्याम घटा करारी । महानियो --- बाला उतै परी मूर्छित हवै विहाला ॥
'ऋतुतरङ्गियो , द्विवेदी पृ० ८५