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घोर घमही पुरुषों की क्यों टेढी हुई न लंक १
चिन्ह देख जिसमें सब उनको पहचानते निशंक ॥ उपयुक्त पंक्तियों में व्यंग्य का बहुत कुछ चमत्कार है । संस्कृत-श्लोक में उन कान्यकुब्ज ब्राह्मणो पर आक्षेप किया गया है जो विद्याध्ययन, खेती, व्यापार या नौकरी न करके अपनी समुगल को कल्पवृक्ष समझते और उसी के धन से सानन्द जीवन-यापन करते हैं । हिन्दीपद मे मिथ्यावादियों के सिर पर सीग उगवाने और घमंडियो की कटि टेढी करा देने की कवि-कल्पना निस्मन्देह चमत्कारकारिणी है । परन्तु द्विवेदी जी की अधिकाश कवितात्रो मे अर्थ की अतिशय प्रकाशता होने के कारण प्रसन्नता का यह गुण दोष बन गया है। २ श्रागे चले बहुरि रधुराई-नीरस किन्तु स्पष्ट पद पद-पद पर मिल सकते है।
पद्य-निवन्धा की वर्णनात्मकता और अतिप्रकाशता के कारण द्विवेदी जी की कविताएं प्रायः इतिवृत्तात्मक है। उनकी सभी पद्यकृतिया कविता नहीं है । इन इतिवृत्तात्मक रचनायो मे भी स्थान स्थान पर कवित्व है । यह उपयुक्त विवेचन और उद्धरणो से प्रमाणित है ! उनकी कवितायो की इतिवृत्तात्मकता और नीरसता के अनेक कारण हैं । द्विवेदी जी ने अपनी अधिकाश कविताओं की रचना अराजकता-काल में की थी, द्विवेदी-युग मे नहीं । उस समय हिन्दी-साहित्य के भीतर और बाहर सर्वत्र ही अराजकता थी । भूमिका में वर्णित राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक श्रादि अान्दोलन कवियों की एकान्त साधना में बहुत कुछ बाधक हुए। एक ओर तो यह दशा थी और दूसरी ओर द्विवेदी जी का ज्ञानसम्बल संस्कृत-साहित्य और पुरानी परिपाटी के पंडितो के अध्यापन पर ही अवलम्बित था। उनका ६ द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० २६० ।
नान्ध्रीपयोधर इवातितरां प्रकाशो,
नो गुजेरीस्तन इवातितगं निगूढः । अर्थों गिरामपिहितः पिहितश्च कश्चित्, सौभाग्यमेति मरहट्टवधूकुचाभः ॥
-राजशेखर । ३. यथा--
घर में सबको भाती है यह, पति का चित्त चुराती है यह । सखियों में जब आती है यह, मधु मीठा टपकाती है यह ॥
___द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० ३७८ !
शरीर ही से पुरुषार्थ चार, शरीर की है महिमा अपार । शरीररचा पर ध्यान दीजै शरीरसंचा सन छोर कीजे ।
द्विव दी
प०४१४