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से वर्तमान, कल्पना से यथार्थ, उपदेश से कर्म, पर-प्रार्थना से स्वावलम्बन, निराशा तथा अविश्वास से अाशा तथा विश्वास और दीनतापूर्ण नम्रता से क्रान्तिपूर्ण उद्गार की भोर अग्रसर होती गई है। उस युग के पूर्वार्द्ध में श्रीधर पाठक, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, रूपनारायण पाडेय आदि का स्वर नम्रतापूर्ण रहा किन्तु उत्तरार्द्ध में माखनलाल चतुर्वेदी, सुभद्राकुमारी चौहान, एक राष्टीय अात्मा' श्रादि स्वतंत्रता-अान्दोलन के अनुभवी कार्यकर्ता कवियों का स्वर क्रान्तिारी उद्गारो से भरा हुया है।
द्विवेदी-युग में प्रकृति पर लिखित कविताओं का पाच दृष्टियो से वर्गीकरण किया जा सकता है । भाव की दृष्टि से प्रकृति का वर्णन दो रूपो में किया गया एक तो भाव चित्रण और दूसरा रूप चित्रण । भावाकन ज्ञानतत्वप्रधान था । प्रकृति के सूक्ष्म पर्यवेक्षण
और दृश्याकन द्वारा कवि ने एक दार्शनिक की भाति उसके रहस्यों का उद्घाटन किया, यथा:
वही मधुऋतु की गंजित डाल झुकी थी जो यौवन के भार, अकिचनता में निज तत्काल मिहर उठती- जीवन है भार ।
आह ! पावस नद के उद्गार काल के बनते चिन्ह कराल, प्रात का सोने का संसार
जला देती संध्या की ज्वाल ।' रूप चित्रण में कलातत्व की प्रधानता थी। इसमे कवि ने चित्रकार की भाँति प्रकृति के ऐन्द्रिक दृश्याकन द्वारा उसका बिम्ब ग्रहण कराने का प्रयास किया यथाः---
अचल के शिखरो पर जा चढी
___किरण पादप शीश विहारिणी। तरणि-बिम्ब तिरोहित हो चला
गगनमंडल मध्य शनैः शनैः ॥ सौन्दर्य की दृष्टि से प्रकृति के मुख्यतया दो रूप अंकित किए गए, एक तो उसकी मधुरता
और कोमलता का दूसरा उसकी भयंकरता और उग्रता का। इन दोनो चित्रो की भिन्नता का १. 'अनित्य जग'-सुमित्रानन्दन पंत, १९२४ ई० ।
'आधुनिक कपि' पृष्ठ ३॥ २ मियप्रवास' सर्ग , पद १