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द्विवेदी जी के स्मात्य की हानि का प्रधान कारमा प्रान महान् साहि यकार कहलाने गले लगका का अशुद्विभरी रचमाया का आद्योपात संशाधन ही था लेख का से पन व्यवहार, फसशीधन और पर्यवेक्षण के अनन्तर अन्य लेखकों की रचनाओं को कोर्टछांट कर' सुधारने का भारि प्रयत्न' और 'उस पर भी अनेक उपयोगी और बालश्यक लेग्बो को 'स्त्रय मित्र और मिस्त्री को प्रत्येक संख्या नियत समय पर प्रस्तुत करना द्विवेदी जी-जैसे असो वारण मम्पादक काही काम या दुस्साय मशोधन कार्य से कभीकभी उन्हे अाक्रान्त कर देता था । सत्यशरण रतूड़ा की शरन्-स्त्रागत कविता की कि वाकल्म करते हुए उन्होंने हाशिये पर अंगरेजी में आक्षेप किया IIEATER :
नोटये केवि मेरे लिए घोर दुःख के कारण हैं।"२ निस्सईह कोटे की मौमा हो जानें पर ही द्विवेदी जी न ऐमा लिखा होगा। इम 'अनन्त परिश्रम म परीजित होकर एक बार उन्होंने 'गिरिधर शर्मा की 'ग्रंशुमती कंक्ति की मेथिली शरण - गुप्त के पान संशोधनार्थ भेजते हुए उसके हाशिए पर नोर्देश किया जा . . Fy. TRE EFFथिलीशरण औ.
The IFFERT : . .... दया कीजिए, हमारी जान बचाइए । इन दोनों कविताओं को जग ध्यान
ना को जगे ध्यान में अपनी तरह देख जाइए। फिर उचित सशोधन करके ४-दिन में यथा संभव शीघ्र ही लौटा दीजिए। कई जगह शब्दस्थापना का क्रम ठीक नहीं पढनही बनता।
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... 'मरस्वती'-सम्पादन के कठोर यज्ञ में द्विवेदी जी ने अपने स्वास्थ्य का बलिदान कर दिया.। १६१०. ई० में उन्हे. पूरे वर्ष. भर की छुट्टी लेनी पड़ी। तत्पश्चात् दूम, व की कष्टकरी साधना के कारण उनका शरीर जर्जर हो गया और उन्हे, विवश होकर 'मरस्वती, मवा में प्रधान ग्रहण करना पड़ा।
1लेग्वको के प्रति द्विवेदी जी का व्यवहार विशेषःहराहनीया झीय नाव पकानक पास पहुँचती तो वे तत्काल उसे देस्कत, शीघ्र ही उसकी पहुँच, अपने या न छापने का उत्तर भी भेज देने । अस्वीकृत रचना बोटाते. समयः लेखक - के आश्वामर के लिए कोई न कोई वाक्य अवश्य लिम्व देते थे जिम्मे वह आमसन्न या हतोत्साइन होक्करः गद्गद् हो जाता
१. द्विवेदी जी के संशोधन- कार्य की गुरुता का न्यूनाधिक दिग्दर्शन परिशिष्ट संख्या ३ में
उद्धत संशोधित रचना से हो जायगा। २ 'सरस्वती' के स्वीकृत लेख. बैंडल '१६०५ ई०. कला-भवन, ना. संभा, काशी' । 3 सरस्वती' क स्वीकृत लेख, बल्ल १९१७ का ना.सभा कसा भूक्त ।।