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श्रागू" और फिर प्रतापनारायण श्रीवास्तव का विलाप, ३ कुवर रामसिंह लिखित 'दो तरंगे', ४ त्रियोगी हरि के 'परदा', 'वीणा', 'सवा', 'दर्शन' और 'सरॉय', ' भगवतीप्रसाद बाजपेयी का 'कवि', शान्तिप्रिय द्विवेदी का क्षमायाचना श्रादि गद्यकाव्य पत्रिकाओं से प्रकाशित हुए। प्रभा ने तो कभी-कभी 'हृदयतरंग " नामक खंड ही निकाला जिसमें गद्यकाव्य के लिए स्थान सुरक्षित रहता था । 'सौन्दर्योपासक', 'अश्रुधारा 'नवजीवन वा प्रेमलहरी', 'त्रिवेणी', १२ 'साधना', १३ 'तर गिणी', १४ 'अन्तस्तल', १५ 'फिर निराशा क्यों', १६ " सखाप १७ श्रादि गद्यकाव्य पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। जयशंकर प्रसाद के गद्यकाव्यों में संस्कृत-पदावली की बहुलता, दार्शनिकता की प्रतिगूढता और शब्दचयन की अनुपयुक्तता के कारण कवित्व नष्ट होगया है । 'नवीन' यादि में भी भावप्रवणता और अभिव्यंजता की मार्मिकता नहीं है । सम्भवतः अपने को गद्यकाव्य के अयोग्य समझकर ही इन कवियों ने तादृश रचनाओं से मुँह फेर लिया। उस युग मे गद्यकाव्य-निर्माण का विशेष श्रेय राय कृष्णदास, चतुरमेन शास्त्री और वियोगीहरि को ही है । वियोगी हरि का 'अन्तर्नाद' यद्यपि सं० १६८३ में प्रकाशित हुआ तथापि इसकी प्रायः सभी रचनाएं द्विवेदी युग के अन्तर्गत ही हैं । इस संग्रह की पाच रचनाओं के देशकाल का निर्देश ऊपर हो चुका है ।
पुस्तको के 'साधना', 'अन्नस्तल', अन्तर्नाद', आदि नाम स्वयं ही इस बात की घोषणा करते हैं कि ये रचनाए बाह्य आलम्बनों से सम्बन्धित न होकर अध्यान्तरिक हैं । १. प्रभा, वर्ष ३, ग्खंड २, पृष्ट २३३ ।
२.
मार्च १३२५ ई०, पृष्ठ १८६ |
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३.
वर्ष ३, खंड २,
१६२ ।
वर्ष ३, खंड २, पृष्ठ २०२ ।
४.
५.
फरवरी, १६२४ ३०. पृष्ठ १३१ |
मई, १६२४ ई०, पृष्ठ २७६ ।
६.
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ॐ
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११
७. जनवरी, १६२५ ई०, पृष्ठ ७३ ।
म. उदाहरणार्थं मई, जून, १६२१ ई० ।
e व्रजनन्दन मिश्र, १९११ ई० ।
१०. वजनन्दन मिश्र, ६६१६ ३० । ११. कुमार राधिकात्मणसिंह, १९१६ ई० । १२. देवेन्द्र, सं० १8३ ।
३३. राय कृष्णदास, सं० १९७४ |
१४ हरिप्रसाद द्विवेदी, सं० १९७६ ।
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१५. चतुरसेन शास्त्री, सं० १९७८ । १६. गुलाबराय द्वितीयावृति १६८० वि० ।
१७ राय
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