________________
[ २८६ ! संस्कृत भाषा और संस्कृत छन्दा के कारण हुए है कहीं कहीं बोलचाल के प्रभाव के कारण भी कवियों ने लघु को गुरु मान लिया है । यथा---
गरल अमृत अर्भक को हुआ। इस उद्धरण में अमृत के 'भू' का '' हस्त्र स्वर है और 'अ' भी ह्रस्व है अतएव इन दोनों का ही उच्चारण लघु होना चाहिए परन्तु कवि ने 'म' में द्वित्व का अारोप करके छन्द की मर्यादा के निर्वाहार्थं लधु 'अ' को दीर्घ कर दिया है ! मैथिलीशरण गुप्त श्रादि ने हिन्दी के अप्रचलित छन्दो, गीतिका, हरिगीतिका,. रूप-माला आदि का प्रयोग किया । नाथूराम शर्मा आदि ने दो छन्दों के मिश्रण से भी नए छन्द बनाए । उस युग में लावनी की लय का विशेष प्रचार हुश्रा । हिन्दी के छन्दों का चरण और लावनी का अन्त्यानुप्रासक्रम लेकर मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यामिह उपाध्याय, रामचरित उपाध्याय आदि ने हिन्दी में अनेक प्रबन्धीत लिखे २
बंगला के पयार और अंग्रेजो के सानेट का भी हिन्दी में प्रचार हुअा। जयशंकरप्रसाद आदि ने 'इंदु' और 'माधुरी' में अनेक चतुर्दशपदी गीत लिखे। छायावादी कवियो ने स्वच्छन्द और मुक्तछन्दों की परम्परा चलाई । अंत्यानुप्रास की दृष्टि से स्वच्छन्द छन्द तीन पकार के लिखे गए । एक तो वे थे जिनमें आद्योपान्त अनुप्रास था ही नही जैसे प्रसाद जी का 'महाराणा प्रताप का महत्त्व' या पंत की 'ग्रन्थि'। दूसरे वे छन्द थे जिसमे श्रन्यानुप्रास किसी न किसी रूप में श्राद्योपान्त विद्यमान था, यथा पत जी की 'लेह', 'नीरवतार' आदि कविताएँ । तीसरे वे छन्द थे जिनमें कहीं तो अंत्यानुप्रास था और कहीं नहीं था, उदाहरणार्थ पंत जी का निष्ठुर परिवर्तन' या सियारामशरण गुप्त की 'याद' १४ निराला जी ने मुक्तछन्दों का विशेष प्रचार किया। उनकी जुही की कली' १६१७ ई० में ही लिखी गई थी। परन्तु अपनी अति नवीनता के. कारण हिन्दी-पत्रिकायो में स्थान न पा सकी। उनकी 'अधिवास'५ ग्रादि कविताएँ आगे चल कर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई। इन मुक्तछन्दों में स्वच्छन्द छन्दो की छन्दलय का स्थान स्वाभाविक मावलय ने ले लिया ।
. प्रियप्रवास, सर्ग २, पद ३५ ॥ २. उदाहरणार्थ, हरिऔध जी का 'दमदार दावे'-~--
प्रभा, मार्च, १९२४ ई० पृ० २१३ । ३. यथा, आधुनिक कवि' २ के पृष्ट - पर । ४ प्रभा, नवम्बर, १९२४ ई०, पृष्ट ३७६ । ५ माधुरी भाग ! सर २, ५० १५३