________________
दवीदत्त शुक्ल, हरिभाऊ उपाध्याय, माथलीशरण गुप्त, कदारनाथ पाठक, विश्वम्भरनाथ शमा कौशिक, लक्ष्मीधर वाजपेयी आदि ने उनके शिष्टाचार की भूरि-भूरि प्रशंसा की है ।"
द्विवेदी जी सम्भाषणकला में भी पद थे। वार्तालाप के समय बीच बीच मे हिन्दी, संस्कृत, उर्दू आदि के सुभाषितों का बडा ही चुनता हुना माविका प्रयोग करते थे ! उनके भावपूर्ण उद्गारो— 'अनुमोदन का अन्त', 'कौटिल्य कुठार', 'सम्पादक की विदाई', द्विवेदी- मेले के समय ग्रात्मनिवेदन आदि में यह शैली सौन्दर्य की सीमा पर पहुँच गई है । उनकी रचनाओं में सर्वत्र ही प्रभावशाली वक्ता का मनोहर स्वर सुनाई पड़ता है ।
द्विवेदी जी बड़े ही बत्सल और प्रेमी थे। बच्चों के प्रति उनका स्नेह अगाध था | अपना माता जी में इतनी श्रद्धा और उनके दुख सुख का इतना ध्यान रखते थे कि जब पन्द्रह रुपए की नौकरी करते थे तब भी पाँच रुपया मासिक उन्हें भेजा करते थे । उनके पत्नी प्रेम का पवन प्रतीक स्मृति-मन्दिर तो आज भी विद्यमान है । अपनी विधवा सरहज के प्रति उनका स्नेह कम न था । अपने १९०७ ई० के मृत्यु- लेख में उन्हे भी विशिष्ट स्थान दिया था ! वृद्धावस्था में उनके परिवार में भानजा मानजे की वधू, और एक लडकी थी । ये दूर के सम्बन्धी थे परन्तु द्विवेदी जी उन्हें आदर्श पिता की भौति प्यार करते थे । वे पर- दुख-कातर और प्रेमी थे । सम्बन्धियों और मित्रों के बाल-बच्ची, आश्रित जनो और दास-दासियां तक की सहायता और पालना उन्होंने जिस स्नेह और उदारता से की यह सर्वथा
1
राध्य है
मित्र या भक्त के लिए उनके मन में संकोच का लेश भी नहीं था । ३ सम्बन्धियों के हम्मरगा मात्र मे ही उनकी श्रग् सजल हो जाती थी। उनके विरोधी भी उनके प्रेमभाव के कायल थे। अपने समीप आने वालो को वे प्रेम से मोह लेते थे । केदारनाथ पाठक की चर्चा ऊपर हो चुकी है। पंडित हरिभाऊ उपाध्याय आदि ने भी द्विवेदी जी के वात्सल्य का मुक्तकंठ से गुग्गान किया है. "सम्पादक, विद्वान्, चाचार्य द्विवेदी को सारा हिन्दीसंसार जानता है । परन्तु महृदय, वत्सल पिता द्विवेदी को कितने लोग जानते होगे ? निश्चय ही सम्पादक द्विवेदी से यह पिता द्विवेदी अधिक महान् था । १४
1
"
१. इस सम्बन्ध में 'हंस' का 'अनि नन्दनांक', 'बालक', का द्विवेदी स्मृतियंक', 'द्विव ेदी अभिनन्दन ग्रन्थ' 'साहित्य-सन्देश' का 'द्विवेदी-शंक' और 'सरस्वती' का 'द्विवेदी
7
स्मृति-अंक' विशेष द्रष्टव्य हैं !
२. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय में रचित ।
३. राय कृष्णदास को लिखित पत्र, 'सरस्वती', भा० ४५, स० ४, पृ० ४६७ ।
● 'सरस्वती' भा० ४० मं- २ पृ० १२८
1