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व पद उद्धृत करते हुए उत्थान नाव साहब की तीखी
प्रत्यालोचना की।' प्रवक्त वक्तव्य के परिवर्तित रूप में द्विवेदी जी ने एक ग्रन्थ हो लिख डाला – 'कौटिल्य कुठार | १२ विवाद के उपरान्त भी बहुत तद्विवेदी जी ने मना के घेरे में, लोगो के श्राग्रह करने पर भी, पदार्पण नहीं किया । बहुतदिन बीत जाने पर श्यामसुन्दरदास ने पत्र लिखकर क्षमाप्रार्थना की और अपने अपराध का मार्जन कराया । ४ बलवान् समय ने लोगों का मनोमालिन्य दूर कर दिया । जब द्विवेदी जी १९६३१ ई० की जनवरी मे काशी पधारत नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें अभिनन्दन पत्र दिया। कुछ दिन बाद शिवपूजन सहाय ने प्रस्ताव किया कि द्विवेदी जो की सत्तरी वर्षगाठ के शुभ अवसर पर उनके अभिनन्दनार्थ एक पन्थ प्रकाशित किया जाय। "
१. यह प्रत्यालोचना काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित कतग्नों में देखी जा सकती है ।
२. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के कलाभवन में रक्षित 'कौटिल्यकुठार', का अन्तिम वच्छेद इस प्रकार हैं
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"आपने अपने ही मुह मे पने त्रियत्य की घोषणा की है। यह बड़ी खुशी की बात है । इस वर्णाश्रमधर्म-द्दीन युग मे कौन ऐसा अधम होगा, जिसे यह सुनकर श्रानन्द न हो कि आप अपना धर्म समझते हैं । हम ग्राप को क्षत्रियकुलावतंस मानकर रघु, दिलीप, दशरथ, विष्ठिर, हरिश्चन्द्र और कर्ण की याद दिलाते हैं, और बडे ही नम्रभाव से प्रार्थना करते हैं, कि हमारे लेखो में कही गई मूल बातो का रघु की तरह उदारतापूर्वक युधिष्ठिर की तरह धर्ममता पूर्वक और हरिश्चन्द्र की तरह मत्यतापूर्वक विचार करे, और देखें कि ब्राह्मणों के साथ आपने कोई काम ऐसा तो नहीं किया, जो इन क्षत्रिय शिरोमणियों को स्वर्ग में लटके । जिन ब्राह्मणो के लिए क्षत्रियों का यह सिद्धान्त था कि "भारत हू पा परिय तिहारे " उन्हीं ब्राह्मणों को सभा से निकालने की तजवीज़ में ग्राप ने सहायता दी या नहीं ? उन्ही ब्राह्मणो की किताव का मुकाबला करने में आपने दूने मे कुछ ज़ियादह शब्दो को प्रायः तिगुना बताया या नहीं ? ब्राह्मणो की लिखी हुई पुस्तक उन्हीं को न दिखाना थापने न्याय्य समझा या नहीं ? उन्हीं ब्राह्मणों के द्वारा की हुई सभा की मेवापर खाक डालकर आपने उनसे चिट्ठियों तक का महसूल वसूल करके सभा की आम दनी बढ़ाई या नही १. यदि चाप को सचमुच ही पश्चात्ताप हो तो कहिए -- पुनन्तु मा ब्राह्मणपादरेणवः | उस समय यदि श्राप के सारे अपराध सदा के लिए भुला कर क्षमापूर्वक आपका ढालिगन न करें तो आप उस दिन से हमें ब्राह्मण न समझिए । २. राय कृष्णदाम को द्विवेकी जी का पत्र २.१२ १६१०, 'सरस्वती', भाग ४५, सं० ४, पृ० ४६६
४ द्विवेदी जो के पत्र सं १६३ कशी नागरी प्रचारिणी सभा कार्यावय अथ भूमिका पृ
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