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मो बन्द हो गई । तदनन्तर पत्रिका का मी अन्त हो गया ।
भारतेन्दु के पत्रिका प्रकाशन सम्बन्धी सद्योग में उन विषम परिस्थितियों में भी लेखका का एक अच्छा संघ स्थापित हो गया । उनकी हडता और स्वाभिमान ने हिन्दी लेखकों के हृदय में हिन्दी के प्रति प्रेम उत्पन्न कर दिया । जन साधारण मी हिन्दी-सेवा की ओर ध्यान देने लगे । अनेक पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारम्भ हुआ । खेद है कि संपादकों ने अपने कर्तव्य और उत्तरदायित्व मे अनभिज्ञ होने के कारण जनता की रुचि की अवहेलना करके
tatafat erant दी और अपने ही सिद्धांत को पाठको पर बलात लादने का प्रयास किया । भारतेन्दु इस त्रुटि को पहिचानते थे । उन्होंने अपनी पत्रिकाओं में राजनैतिक सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि विविश्व विषयक स्वनाओं को स्थान दिया ।
'प्रेनविलानिनी', 'सदादर्श' ( १८३४ ई० ), काशी पत्रिक' (६३०), 'भारतआटि वन्धु' ( १८८७६ ई० ), 'मित्र विलाम' (८७) आर्यदर्पण' (१८७७०), पत्रों ने न्यूनाधिक प्रचार के अतिरिक्त कोई उल्लेख्य कार्य नहीं किया । 'हिन्दी' विशेष योग ( १८८७७ ई० ) ने अपने विविध विषयक लेखांद्वारा हिन्दी के उत्थान दिया | 'भारत मित्र' ( १८७७ ई० ), राजनीति प्रधान पत्र होकर निकला और अपनी जन प्रियता के कारण पाक्षिक में माताहिक हो गया । १८७७ ई० में तत्कालीन जनसाहित्य का प्रतीक 'सार सुधानिधि' प्रकाशित हुआ । वातावरण के अनुकूल भावपूर्ण कविता, राजनैतिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक श्रादि विषयों के लेखा पुस्तकालोचन, नाटक, उपन्यामादि के प्रकाशन तथा रोचक और विचार सम्पादकीय टिप्पणियों ने उसके गोरव को बढा दिया ।
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वर्नाक्यूलर प्रेस ऐक्ट द्वारा १८७८ ई० में लार्ड लिटन ने पत्रो की रही-सही स्वाधीनता का अपहरण करके उन्हें विवशता के बन्धन में बाँध दिया। फलस्वरूप चार वर्षो तक पत्र जगत् में कुछ विशेष उन्नति न हो सकी । 'उचितवक्ला' (१८७८ ई० ), 'भारतमुदशाप्रवर्तक', ( ई० ). 'सज्जनकीर्ति सुधाकर' ( १८७६ ई०), 'त्रियपत्रिका' (१८८१ ई० ) 'देशहितैषी' (१८८२ ई० ) आदि टिमटिमाते हुए मन्द प्रदीप की भाँति प्रकाश में आए। स्वदेशी प्रचार के ग्रान्दोलन एवं सभासमितियो और व्याख्यानों के कोलाहल में 'श्रानन्द्र कादम्बिनी' कविता प्रधान पत्रिका के रूप में आई । १
१८८७८
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1 उसके एक अंक की विषय सूची इस प्रकार है-सम्पादकीय-सम्पति समीर ( मार ) साहित्य सौगमिना