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तुमने हमारा चबूतरा नवाया है, में तुम्हारा मानवका हास्य की इस गणी ने ग्रागे चलकर यथाय का रूप धारण किया।
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उनकी स्त्री को प्रारंभ से ही हिस्टीरिया का रोग था। इसी कारण द्विवेदी जी उन्हे गंगास्नान को अकेले नहीं जाने देते थे। संयोग की बात, एक दिन वे ग्राम की अन्य स्त्रियों के साथ चली गई। गंगा माता उन्हें अपने प्रवाह में बहा ले गई। लगभग एक कोम पर उनका शव मिला।
द्विवेदी जी के कोई सन्तान न थी । पत्नी जीते जी तथा मरने पर लोगों ने उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए लाख समझाया परन्तु उन्होंने स्वीकार नहीं किया । अपने पत्नीव्रत और तन्मम प्रेम को साकार रूप देने के लिए स्मृति-मन्दिर का निर्माण कराया । जयपुर से एक मरस्वती और एक लक्ष्मी की दो मूर्त्तियॉ मॅगाई । वही मे एक शिल्पी भी बुलाया। उसने उनकी स्त्री की एक मूर्ति बनाई । वह द्विवेदी जी को पसन्द न आई । फिर उसने दूसरी बनाई | सात-आठ महीने में मूर्ति तैयार हुई। लगभग एक सहस्त्र रुपया व्यय हुआ । स्मृति-मन्दिर मे तीनां मूर्तियाँ स्थापित की गई — मध्य में उनकी धर्म-पत्नी की, दाहिनी ओर लक्ष्मी और बाई और सरस्वती की । 3
१. 'सरस्वती', भाग ४० सं० २, पृ० १५३ |
२. 'सरस्वती', भाग ४०, मं० २, पृ० २२१ ।
३. धर्म पत्नी की मूर्ति के नीचे द्विवेदी जी के स्वरचित निम्नांकित श्लोक खचित हैं-
नवषण्णव भूसंग्ये विक्रमादित्यवत्सरे । शुकृष्णत्रयोदश्यामधिकापामासि च ॥ मोहमुग्धा गतज्ञाना भ्रमरोगनिपीडिता । जन्हुजा याजले प्राप पंचत्व' या पतिव्रता ॥ निर्मापितमिदं तस्याः स्वपत्न्याः स्मृतिमन्दिरम् । व्यथितेन महावीरप्रसादेन द्विवेदिना ॥ पत्युगृ है यत. सासीत, साताच्छविरूपिणी । veronical वाणी द्वितीया मैव सुव्रता ॥ एवा तत्प्रतिमा तस्मान्मध्यभागे तयोर्द्वयोः । लक्ष्मी सरस्वतीदेव्याः स्थापिता परमादरात् ॥ और सरस्वती की मूर्ति के ऊपर क्रमशः अधोलिखित श्लोक अंकित हैंविष्णुप्रिया विशालाक्षी चीराम्भोनिधिसम्भवा । इयं विराजते लक्ष्मी लोकेशैरपि पूजिता ॥ इसोपरि समासीना वर विश्ववन्द्यय सब शुक्ला सरस्वती
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