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स्त्री की मूर्ति स्थापित करने पर लोग ने द्विवदी जी की बड़ी हमी दाई । यह तक कद डाला ~ "दुवौना कलजुगी है कलजुगी। द्याखौना, मेहरिया के भूरति बनवाय के पधराई सि हइ ! यही कौनिउ वेद पुरान के मरजाढ श्राय १ यही नहीं, सामने भी ताने कसने,गालियाँ तक वक्रते परन्तु द्विवेदी जी पर कोई प्रभाव न पडता । अपनी पत्नी के वियोग में वे कितने दुःन्त्री थे, यह बात पं० पामिह शर्मा को लिग्वे गए निम्नाकित पत्र से स्पष्ट प्रमाणित होती है
दौलतपुर
१३. ७. १२ । प्रणाम, ___कार्ड मिला। क्या लिवू ? यहाँ भी बुग हाल है। पत्नी मेरी इम मभार से कुच कर गई । मैं चाहता हूँ कि मेरी भी जल्दो बारी बावे ।
भवदीय
महावीर प्रमाद ।"२ इतने सच्च ग्रंमी होकर मला वे अनर्गल और मिथ्या लोकनिन्दा को ओर क्या ध्यान देत ? ३ अक्टूबर १६०७ ई० के अपने मृत्यु'लेन्त्र में भी उन्होने अपने पत्नी-प्रेम का परिचय दिया था।
द्विवेदी जी को पारिवारिक मुम्ब नहीं मिला। उनके मन में यह बात खटकती भी रहती थी ! परन्तु उनका दुब सामान्यतः प्रकट नहीं होता था। अपनी दुःस्त्र कथा दूसरा को मुना कर उनके हृदय को कष्ट पहुँचाना उन्होने अन्याय समझा । बाबू चिन्तामणि घोप की मृत्यु पर द्विवेदी जी ने स्वयं लिग्वा था--
"अाज तक मेरे मभी कुटुम्बी एक एक करके मुझे छोड गए। मैं ही अकेला कलगुन बना हुअा अपने अन्तिम श्वासों की राह देख रहा हूँ। "कभी मैने 'मरस्वती' में अपना रोना
3. 'सरस्वती' भाग ४० मा २, पृ० २२१ । २. 'सरस्वती', नवम्बर, १६४० ई० । ३. उन्होंने अपनी आय का ५० प्रतिशत अपनी स्त्री और शेष अपनी माँ और सरहज के
लिए निर्धारित किया था। पानी के मानसिक सुख और शान्ति के लिए यहाँ तक लिखा था कि
Trustees will be good enough to leave her alone in the matter of her ornaments and will not injure her feelings in that respect by d manding an account of her ornim nts or of their disposa
का ना० प्र० सभा के कार्यालय में रचित मल्यु-लेम्ब