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नहीं रोना
श्रतएव उम
मरी उस कष्ट नाम सरस्वता' का कुछ भी सम्बन्ध न था 'सरस्वती' क पाठका को सुना कर उनका समय नम करना मैंन अन्याय समझा १११ दैहिक ओर भौतिक वेदनाओं ने द्विवेदी जी के हृदय को इतना अभिभूत किया कि समय-समय पर वे अपनी पीडाओ को अभिव्यक्त किए बिना न रह सके । वे कभी कभी कुटुम्बियों के जंजाल में अधिक शोकाकुल हो जाया करते थे । १२. ८. ३३. ई० को उन्होने किशोरीदास वाजपेई को पत्र में लिखा था-
" आपकी कौटुम्बिक व्यवस्था मे मिलता जुलता ही मेरा हाल है । अपना निज का कोई नही है । दूर दूर की चिडियाँ जमा हुई हैं। खूब चुगती हैं । पुरस्कार स्वरूप दिन रात पीडित किए रहती है । १२
यह द्विवेदी जी का स्थायी नाव न था । उन्होंने अपनी विधवा बहन, बहन की विधवा लडकी, भानजे, उसकी बधू और लडकी को असाधारण आत्मीयता और प्रेम से अपनाया । यद्यपि कमलकिशोर त्रिपाठी उनके सगे भानजे नहीं हैं तथापि द्विवेदी जी ने उनका और उनकी लडकियों का विवाह अपनी बेटे-बेटियों की ही भाँति किया । अपने १६०७ ई० के मृत्यु-लेख में उन्होंने अपनी माँ, सरहज और स्त्री के पालनार्थ अपनी आय का क्रमशः तीस, बीम और पचास प्रतिशत निर्धारित किया था । जीवन के पिछले प्रहर में इनका देहान्त हो जाने के पश्चात् उन्होंने उस मृत्यु- लेख को व्यर्थ समझ कर भंग कर दिया । चल सम्पत्ति का प्रायः सवाश दान कर के अपनी अचल सम्पत्ति का उत्तराधिकारी उपयुक्त कल्पित मानजे कमलकिशोर त्रिपाठी को बनाया ।
'सरस्वती' के सम्पादन- कार्य में अवकाश ग्रहण करने पर द्विवेदी जी अपने गाँव दौलतपुर में ही रहने लगे। बहुत दिनों तक आनरेरी मुंसिफ और तदुपरान ग्राम पंचायत के सरपंच रहे | इन पदों पर रहने हुए उन्होंने न्याय का पूर्णतया निर्वाह किया। उनकी कठोर न्यायप्रियता से अनेक लोग असन्तुष्ट भी हुए, किन्तु द्विवेदी जी ने इसकी कुछ भी परवा न की । न्याय की रक्षा के लिये यदि किसी अकिंचन को अार्थिक दंड दिया तो कम्णा के वशीभृत होकर उसका जुर्माना अपने पास से चुकाया ।
आधुनिक ग्रामसुधार आन्दोलन के बहुत पहले ही उन्होंने इसकी ओर ध्यान दिया था ।
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द्विवेदी- लिखित 'बाबू चिन्तामणि घोष की स्मृति'
सरस्वती, १९२८ ई० ख २ पृ० २८२
२ सरस्वती भाग ४० स०२, पृ० ३२१
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