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अपनी ही बात को प्राप्त एवं प्रधान मानने वाले साहित्यिकों, समालोचकों, सम्पादकों आदि पर आक्षेप |
भर्त्सनामय अभिव्यक्ति समाज के उन दिग्गजों के प्रति थी जो बार बार समझाने पर भी, समाज के अत्यन्त पतित होजाने पर भी, श्राखें खोलने को प्रस्तुत न थे और अपनी हठधर्मी के कारण अशुभ पथ पर चल रहे थे । यह अभिव्यक्ति कही तो वाच्यप्रधान थी जिसमे सीधे शब्दो द्वारा समाज को फटकार बताई गई थी, यथा
यह सुन मेरी विकट बोलिया चौक पड़े चंड्रल |
पर जो हिन्दू बात कहेगा हिन्दी के प्रतिकुल ||
उसे घर घर धिक्कारूंगा ।
किसी मे कभी न हारूंगा ||
और कही व्यंग्यप्रधान थी जिसमें काकु आदि के सहारे हठधर्मियां पर तीव्र आक्षेप किया गया, यथा-
सुने स्वर्ग ने लौ लगाते रहो, पुनर्जन्म के गीत गाते रहो । डरो कर्म प्रारब्ध के योग से, करो मुक्ति की कामना भोग मे ।
नई ज्योति की ओर जाना नहीं, पुराने दिये को बुझाना नहीं ||
समाज की आलोचना रूप में प्रस्तुत इन कविताओं की अन्त: समीक्षा करने पर कुछ बातें स्पष्ट होजाती है । उन कवियो का उद्देश समाज-सुधार था । वे चाहते थे कि समाज अपनी सभ्यता, संस्कृति और वातावरण के अनकूल केचुल को छोड़ दे और मातृभाषा का सम्मान करे | साहित्यकारों के विषय मे उनका मत था कि वे व्यर्थ की हठधर्मी और
इस तरह के हैं कई ठीके बने, जो कि तन के रोग को देते भगा ।
जो न भन के रोग का टीकाबना, तो हुआ क्या लाभ यह टीका लगा | afrate 'सरस्वती', भाग १६, संख्या २ |
१. यथा: - कोकिल, तू क्यों 'कुक' 'कुक' रटता रहता है ? करके उसमे सन्धि न क्यो कृक कहता है ? आलोचक जी, रीति मुझे भी यह जँचती है । बात वही है और एक मात्रा बचती है । सुनिए वह घुग्घू यह विषय कैसा अच्छा जानता । है 'ऊ' 'घु-ऊ' कहकर न जो 'घू-घू' मात्र बखानता ।
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मैथिलीशरण गुप्त - 'माधुरी', भाग १, खंड १, सं० ४ पृष्ठ ३३ ।
● 'सरस्वती, १९०८ ३० पृष्ठ २१४
३ सरस्वती भाग में सख्या १ |