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जी 7 महृदय काव-हृदय का अभिव्याक्त करने ह जगद्वर मट्ट की स्तुात कुसुमाजलि गोपिया की भगवदभक्ति श्रादि निब ध उनक भक्त हृदय के व्यजक हैं व्यक्तित्व क प्रत्यक्ष रूप मे अनुप्रायित निबन्ध द्विवेदी जी ने बहुत कम लिखे । युग की आवश्यकताओं ने उन्हे वेमा न करने दिया ।
द्विवेदी जी को निबन्धकारिता स्वतन्त्ररूप ने विकसित नही हुई-यह एक सिद्ध तथ्य है। उमे आलोचक, सम्पादक, भाषासुधारक श्रादि ने ममय समय पर अाक्रान्त कर रखा था, अतएव उसका पूर्ण विकाम न हो सका । साथ ही उस युग का पाठक उस साधारण स्तर से ऊपर की वस्तु स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था। निबन्ध की कलात्मकता एवं साहित्यिकता पाठक तथा निवन्धकार के सहयोग पर ही अवलम्बित है। केवल स्थायित्व की दृष्टि से द्विवेदी जी के सभी निबन्धों की परीक्षा करना अनुचित है। उनकी रचना मुख्यतः सामयिक प्रश्नों के समाधान के लिए की गई थी । शुद्ध कला की दृष्टि से ऐसे सामयिक निबन्धों का मूल्य बहुत कम है । तो फिर बाता के मंग्रह कहे जाने वाले द्विवेदी जी के इन निबन्धों का हिन्दी-साहित्य में स्थान क्या है ?
यहा अालोचना और अालोचक के विषय में भी एक बात कहना आवश्यक हो गया। सौन्दर्यमूलक अालोचना ही आलोचना नहीं है। इतिहास और रचनाकार की जीवनी अादि यदि अधिक नहीं तो सौन्दर्य के समान ही महत्वपूर्ण हैं । सौन्दर्य की ईदृक्ता देशकालानुसार परिवर्तनशील है। इसलिए आज की सौन्दर्यकसौटी पर कल की वस्तु को भद्दी और रही कहना न्यायसंगत नहीं जॅचता । आज की कसौटी पर भी द्विवेदी जी के प्रतिभा,' 'हिन्दा भाषा की उत्पत्ति,' 'कालिदास के मेवदूत का रहस्य,' 'कालिदास का स्थिति काल', साहित्य की महत्ता' अदि निबन्ध सोलहो आने वरे उतरते हैं । ये हिन्दी साहित्य की स्थायी निधि हैं । प्राप्त अालोचक बनने के लिए केवल ज्ञान की ही नहीं सहृदयता की भी अपेक्षा है। निबन्ध के कलात्मक विवेचन में विभिन्न प्रकार से चाहे जो भी कहा जाय किन्तु उसके मूल उद्देश मे कोई तात्विकअन्तर नहीं है। हिन्दी साहित्य मे निबन्ध का उद्देश रहा है नियत समय पर निश्चित विचारों का प्रचार करना। और इसी कारण पत्रिकाएँ उसके प्रकाशन का माध्यम बनी ! भूमिका में कहा जा चुका है कि द्विवेदी जी के पूर्व भी 'हिन्दी-प्रदीप', 'ब्राह्मण', 'अानन्दकादम्बिनी,' 'भारतमित्र' आदि ने बहुसंख्यक निबन्ध प्रकाशित किए थे, परन्तु उन्होंने निबद्ध रूप से निश्चित विचारों का प्रचार नहीं किया। एक ही निबन्ध में उच्छखल भाव से इच्छानुसार सब कुछ कह देने का प्रयास किया गया । द्विवेदी-सम्पादित 'सरस्वती' ने इस कमी को दूर किया । उसका प्रत्येक अंक अपने निबन्धों द्वारा नियत समय पर निश्चित विचारों के प्रचार की घोषणा करता है हिन्दी निबन्ध ने क्ला के लिए कला'