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ना धकार द्विपदी र व्यक्ति र उनके ममा नरा म प्रायोपान्त भी घिर एक गतिशील ह टस विरा भास की व्यारया अपक्षित हैं द्विवदी जी के व्यक्तित्व की स्थिरता उनक उद्देश की स्थिरता में है। उनकी निबन्धरचना का उद्देश निश्चित है--पाठको का मनोरजन मोर उनका बौद्विक तथा चारित्रिक विकाम करना । इम सम्बन्ध में उनके विचार भी निश्चित है -भारतीयों को अपनी भाषा, साहित्य, धर्म, देश, मभ्यता और संस्कृति के प्रति प्रेम तथा उनके उत्थान के लिए प्रयन्त्र करना चाहिए । पाठ को में उत्थान और प्रेम की भावना भग्ने का यह मात्र द्विवेदी जी के सभी निवन्या में ममवेतया असमवेत रूप से व्याप्त है । उनके व्यस्तित्व की गतिशीलता इस भाव की अभिव्यजनाशैली में है। प्रस्तुत उद्देश की पूर्तिके लिए उन्हें अावस्यकतानुसार या नोच कसम्मादक, भाषा-मस्कारक आदि के विभिन्न पदों ने मंग्राम करना पड़ा है। आवश्यकतानुसार उन्हें वर्णनात्मक, व्यग्यात्मक, चित्रात्मक, वक्तृतात्मक, मलापात्मक, विवेचनात्मक या भावत्मकशैली में वर्णनात्मक, भावात्मक या चिन्तना मक निबन्धों की सृष्टि करनी पडी है ।
पाश्चात्य निबन्धकारो की भाँति द्विवेदी जी का व्यक्तित्व उनके निबन्धों में विशेषस्फुट नहीं हो सका है। इसका एक प्रधान कारण है । पश्चिम के व्यक्तित्व-प्रधान निबन्ध का लेखक स्वयं ही अपने निबन्धी का केन्द्र रहा है । द्विवेदी जी की अवस्था इसके ठीक विपरीत है। अनुमोदन का अन्त,अभिनन्दन, मेले और सम्मेलन के भाषण, सम्पादक की विदाई प्रादि कतिपय अात्मनिवेदनात्मक निबन्यो को छोड़कर अपने किसी भी निबन्ध में द्विवेदी जी ने अपने को निबन्ध का केन्द्र नहीं माना है । पाठक ही उनके निबन्धों का केन्द्र रहा है। उन्होंने प्रत्येक वस्तु को उसी के लाभालाम की दृष्टि से देखा है। ऐसी दशा में द्विवेदी जी क निवन्या का व्यक्तिवैचित्र्य मे विशेष विशिष्ट न होना सर्वथा अनिवार्य था। मनोरंजकता तथा काव्यात्मकता को जब द्विवेदी जी ने ही गौण स्थान दिया है तब उमे ही प्रधान मान कर उनके निबन्धो की विशेषताओं की सच्ची परीक्षा नहीं की जा सकती। व्यक्तिवैचित्र्य तो व्यक्तित्व का संकुचित अर्थ है । उनका व्यापक एवं उचित अर्थ है व्यक्ति की प्रवृत्तिया, विशेषतायो तथा गुण का एक माघातिक स्वरूप । इस दूसरे अर्थ में द्विवेदी जी के निबन्ध उनके व्यक्तित्व में व्याप्त हैं ।
यह तो निबन्धकार द्विवटी के व्यक्तित्व के अव्यक्त पक्ष की बात हुई । उनके व्यक्तित्व का सुव्यक्त पत्र भी है जो उनके कलात्मक निबन्धों में स्पष्टतया प्रकट हुआ है। इमकी अभिव्यंजना दो रूपों में हुई है--महृदयता के रूप में और भक्तिभावना के रूप में । पहले मे कवि द्विवेदी का रूप पण हा है और दूसरे में भक्त एवं दार्शनिक द्विवेदी का मेघर त गस्य' "स का नीर नीर विवा की विदाई प्रादि निषघ दि वटी
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