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निवन्धकार कला का समावेश भी उचित रोति स सहज ही कर सकता है। द्वित्रदी जो ने अपने विम्व को समाप्त करने में गहरी कलात्मकता का परिचय दिया है। कहीं ता विवादग्रस्त विषय पर अपना मत देकर वे पाठक में विचार करने का अनुरोध करके मौन हो गए हैं, कवि के निरूपण के साथ हो निबन्ध को समाप्त कर दिया है, कही उपदेशक की सीधी मादी भाषा में प्रार्थना, अमिलापा आदि की अभिव्यक्ति के द्वारा उन्होंने निवन्ध की समाप्ति की है और कहीं उनके निवन्धों का अन्त किमी सुभाषित उद्धरण आदि के द्वारा हुआ है ।' श्राकस्मिकत। एवं प्रभाव की दृष्टि में ऐसा अन्त अत्यन्त ही सुन्दर बन पड़ा है। अध्ययनशील द्विवेदी जी के अनेक सुन्दर निकम्मी को समाप्ति प्रायः इसी प्रकार हुई है 1
व्यक्तित्व की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धों का अध्ययन कम महत्वपूर्ण नहीं है।
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१ यथा- 'भारतभारती का प्रकाशन'
आशा है पाठक इसे लेकर एक बार इसे सावन पसे और पड़ चुकने पर - 'हम कौन थे, क्या हो गए है, और क्या होंगे मिलकर विचारेंगे हृदय से ये समस्या
अभी ।"
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सभी ॥ विचार-विमर्श' पृ० १६६
२ यथा- 'महाकवि माघ की राजनीति
में शिशुपाल को मारने का निश्चय हुआ ।"
३.
'अतएव इव चलने और वहीं युधिष्ठिर के यज्ञ
सरस्वती, फरवरी ३१२ ई० ।
यथा- 'जगदुर भट्ट की स्तुति कुसुमांजलि -
"जगर की तरह भगवान् भाव से हम भी कुछ कुछ ऐसी ही प्रार्थना करके 'स्तुति - कुसुमांजलि' 'की करा कथा से विरत होते है ।" - साहित्यसन्दर्भ, पृ०
४. क. यथा- 'उपन्यास - रहस्य'--
दुकानदारी ही क कुत्सित कामना से जो लोग, पाठकों को पशुवत् समझ कर, बासपात सदृश अपनी बेसिरपैर की कहानियाँ उनके सामन फेंकते हैं
ने के न जानीमहे ।”
१४६ ।
- 'साहित्यसन्दर्भ, पृ० १७३ ।
a. यथा- 'विवाहविषयक विचारव्यभिचार'
"पर केवल अधिकारी जन ही उस पर कुछ कहने का साहस कर सकते हैं। हम नहीं। हमारी तो वहाँ तक पहुंच ही नहीं
. जिहि मारुत गिरि मेरु उड़ाही । कहहु तूल केहि लेखे माहीं ॥"
पृ 50
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