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भूमिका अनक प्रकार से प्रस्तुत का है सबस प्रचलित तथा सरल शैली कथात्मक है । कहीं पर अात्मनिवेदन-सा करते हुए विषय की प्रस्तावना की गई हैं ।२ कही मूल लेखक के विषय में ज्ञातव्य बातो का कथन करते हुए उन्होंने निबन्ध का प्रारम्भ किया है, कहीं पर निबन्ध का प्रारम्भ तद्गत सुन्दर वस्तु ने ही हुआ है, कहीं प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध किसा सामान्य तथ्य का उद्घाटन ही निवन्ध की भूमिका के रूप में आया है,५ कही निबन्ध को अधिक संवेदनात्मक बनाने के लिए भावप्रधान संबोधन द्वारा उसका प्रारम्भ किया गया है।
और कहीं अध्यापक के स्वर में शीर्षक या विषय के स्पष्टीकरण के द्वारा ही निवन्ध की प्रस्तावना की गई है ।७ निवन्ध को समाप्त करना अपेक्षाकृत सुगम है। उसकी समाप्ति म
१. यथा-'श्रीहर्ष का कलियुग'.---
नषधचरित नामक महाकाव्य की रचना करनेवाले श्रीहर्ष को हुए कम से कम आठ सौ वर्ष हो गए । वे कन्नौजनरेश जयचन्द के समय विद्यमान थे।"
--- 'सरस्वनी, मार्च, १६२१ ई० । २ यथा-'वैदिक देवता'
"हम वैदिक संस्कृत नहीं जानते । अतएव वेद पढ़कर उनका अर्थ समझ सकने की शक्ति भी नहीं रखते । वेद हमने किसी वेदज्ञ विद्वान से भी नही पढ़ ।'
---'साहित्यसन्दर्भ,' ३७ । ३. यथा- पार्यो की जन्मभूमि'--
__ "पूने में नारायण भवानराव पावगी नाम के एक सजन हैं। आप पहले कही सब जज थे।.."
--'सरस्वती,' अक्टूबर, १६२१ ई० । ४ यथा-'महाकवि माघ का प्रभातवर्णन'
रात अब बहुत ही थोडी रह गई है। सुबह होने में कुछ ही कसर है । जरा सप्तर्षि नाम के तारों को तो देखिए । ..
-'साहित्य सन्दर्भ,' प. १०४। ५. यथा-'जगद्धर भट्ट की स्तुति कुसुमांजलि
जिन के हृदय कोमल है, अर्थात् अलकार शास्त्र की भाषा में जो सहृदय है उन्हीं को सरस काव्य के प्राकलन से प्रानन्द की यथेष्ट प्राप्ति हो सकती है।"
--'सरस्वती,' अगस्त, १९२२ ई. । ६ यथा--'प्राचीन भारत की एक झलक'---- भारत क्या तुम्हें कभी अपने पुराने दिनो की बात याद आती है ?.... "
- सरस्वती, दिसम्बर, १६२८ ई. । ७. यथा-कवि कर्तव्य'"कवि कर्तव्य से हमारा अभिप्राय हिन्दी कवियों के कर्तव्य से है।"
मरस्वनी ० पृ. र