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'भाषा
प्रभाग कार न्याय के द्वारा प्रतिपाद्य विषय का ठोस उपस्थापन किया गया है। उहश की दृष्टि से इसके भी दो प्रकार हैं। एक तो वादविवादात्मक निबन्ध हैं जिनमें अपनी बात को पुष्ट और विपक्षियों की बात का खंडित करने के लिए तर्क का सहारा लिया गया है. उदाहरणार्थ-'नंनधचरितचर्चा और 'सुदर्शन', ' महिपतक की समीक्षा', और व्याकरण' आदि । इस शैली का सुन्दरतम निबन्ध द्विवेदी जी का वह लिखित ' Tear' है जिसे उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के पास भेजा था और जिसके परिवखित रूप में 'कौटिल्य कुठार'' की रचना की थी। दूसरे प्रकार के चिन्तनात्मक निबन्ध त्मक हैं जिनमें उपर्युक्त प्रकार का कोई विवाद कारण नहीं है और जिनमें अपने कथन की पुष्टि के लिए सप्रमाण तथा न्यायसंगत शैली अपनाई गई है, यथा- 'राजा युविष्ठिर का समय', " 'हिन्दी भाषा की उत्पत्ति", कालिदास का समयनिपण',৺ 'कालिदास का स्थितिकाल' आदि ।
द्विवेदी जी की निवन्धगत भाषा, रचनाशैली और व्यक्तित्व नी विवेचनीय है । भाषा की रीतियो और शैलियों की विस्तृत समीक्षा ग्रागे चलकर 'भाषा और भापासुधार' श्रव्याय में की गई है । वहाँ यह भी स्पष्ट कर दिया गया हैं कि द्विवेदी जी ने हिन्दी गद्य के शब्दसंकलन की सभी रीतियां और मावाभिव्यंजन की सभी प्रणालियों का यथावसर प्रयोग किया है जो उनकी रचनाओं में विकसित होती हुई भी उनके युग की रीतिशैलियों की भूमिका हैं। उनकी रचनाशेलोगत विशेषताओं का ग्रव्ययन दो प्रकार से सम्भव हैवस्तुस्थापन को दृष्टि से और अभिव्यक्ति प्रणाली की दृष्टि से । वस्तूपस्थापन में भी दो बातें विशेष आलोच्य हैं प्रारम्भ करने की शैली और समाप्त करने की शैली । प्रारम्भ करने के लिए अनेक शैलियों का प्रयोग करके द्विवेदी जी ने पिष्टपेषण की एकरसता को दूर रखा है। विपयानुसार और सुविधानुसार उन्होने निबन्ध की प्रारम्भिक
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१'सरस्वती', १६०० ई०, पृ० ३२१ ।
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१६०१
३४५ ।
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३ 'सरस्वती', १६०६ ई०, पृ० ६० ।
४ अप्रकाशित वक्तव्य काशी-नागरी प्रचारिणी सभा के कार्यालय और restfra
'कौटिल्य कुठार' उक्त सभा के कलाभवन में रक्षित है ।
५. 'सरस्वती', १६०५ ई०, जून
६. १६०७ ई० में पुस्तिकाकार प्रकाशित |
७ सरस्वती, १६१२ इ० पृ० ४६१ ११११ ४०, फरवरी
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