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पारद्ववेदी-युग को पद्य रचना म एक विशिष्ट स्थान ईसाई धम प्रचारकदेशी पाद रिया का भी है पद्य की म्वाभावक प्रभावा पादक्ता से जनता को आकृष्ट करने के लिय उन्होंने "मंगल समाचार का दूत" ( १८६१ ई०), 'बुह श्रेष्ट मूल कथा' (१८७१ ई०', 'खीष्ट-चरितामृत-पुस्तक' ( १८७१ ), 'गीत और भजन' ( १८७५), 'प्रेम-दोहावली' ( १८८० ई०), 'मसीही गीत की किताब ( १८८१ ), दाऊदमाला' ( १८८२ ), 'भजन
सग्रह' ( १८८६ ), 'छन्द-संग्रह' १८८८ वि० सं० ), 'सुबोध-पत्रिका' ( १८८७ ई० ), _ 'गीत-संग्रह' ( १८८८ ई० पृष्ठ सं० ), 'गीतों की पुस्तक' ( १८८६ ई० ), 'धर्मसा' ( १८
८६ ई०), 'गीत-सग्रह' ( १८६४), 'उपमामनोरंजिका' ( १८६६) ग्रादि छन्दोबद्ध पुस्तकें लिखी । इन मे अनेक राग-रागनियों के पद,गीत,भजन,गजल आदि है । दोहा, चौपाई, रोला अादि छन्दों की भी बहुलता है । शिथिल और खिचड़ी भाषा मे काव्यकला का सर्वथा अभाव है। उनका महत्व खड़ीबाली-पद्य-रचना के प्रारम्भिक प्रयास मे ही है। __विषय की दृष्टि से तो भारतन्दु-युग की कविता बहुत कुछ आगे बढ़ गई, परन्तु पूर्ववर्ती रीतिकालीन काव्य का कला-सौंदय न पा सका । भारतेन्दु की कविता में कहीं तो भक्तिकालीन कवियों की स्वाभाविक तल्लीनता, १ कहीं छायावाद की सी लाक्षणिक मूर्तिमता और कहीं चलचित्रों के से चलते गाने है । उस युग के नायिका-उपासक कवियों ने शृङ्गार-वर्णन में ही अपनी प्रतिभा का अधिक उपयोग किया है । कोलाहल के उस युग मे बहुधन्धी कवि अपनी रचनात्रों को विशेष सरस या रमणीय न बना सके । तत्कालीन राजनेतिक, सामाजिक, आर्थिक श्रादि परिस्थितियों से प्रभावित कवियो की शृङ्गारेतर कृतियाँ प्रचारात्मकता और सामयिकता से ऊपर न उठ सकी । श्रीधर पाठक, प्रमघन आदि ने अगरेजो काव्य के भाव और शैली को अपना कर उनी ढंग की रचनाएँ करने का प्रयास किया । पुराने ढर्रे के रूढ़िवादी कवि समग्या-पूर्तियो पर बुरी तरह लद्द थे । भारतेन्दु के 'कवि-समाज' की समस्या-पूर्तिया में निम्सदेह कवित्व है, उदाहरणार्थ भा-तेन्दु की पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना अंखियॉ दुखियाँ नहिं मानति है,' प्रतापनारायण मिश्र को “पपिहा जब पूछि है पीव कहाँ”, प्रमघन की 'चरचा ५ क-नवनीत मेघवरन,दरसत भवताप हरन,परसत सुख करन, भक्तसरन जमुनवारी।
अथवा
धिक देह और गेह सबै सजनी ! जिहि के बस को छूटनो है। ख-ससि सूरज द्वै रैन दिना तुम हियनन करहु प्रकाश । ग-सोप्रो सुख निंदिया प्यारे ललन ।
अथवा प्यारी बिन करत न कारी रैन