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उहाने एक श वला मी प्रम्नत कर दी उनक श्रायामिक विधा का एक विशिष्ट प्रकार भारतीय भक्तिमुलक है और उसमें श्रात्मनिवेदन की प्रधानता है, यथा- 'गोपियों की भगवद्भक्ति" ।
उद्देश की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धो की दो कोटियाँ हैं- मनोरंजन - प्रधान और ज्ञानप्रधान | द्विवेदी- लिखित मनोरंजनप्रधान निबन्धों की संख्या अत्यन्त श्रल्प है । 'प्राचीन कवियों के काव्यों में दोपोद्भावना', 'कालिदास की निरंकुशता', 'दमयंती का चोपालम्भ १४ आदि निबन्ध मनोरंजनप्रधान होते हुए भी ज्ञानवर्द्धन की भावना से सर्वथा शून्य नहीं हैं । वह तो द्विवेदी जी का स्थायी भाव है । द्विवेदी जी के प्रायः सभी निवन्ध पाठकों की ज्ञानभूमिका का विकास करने की मंगलकामना से अनुप्राणित हैं । इसी लिए मनोरंजन की अपेक्षा ज्ञानप्रसार का स्वर ही अधिक प्रधान है ।
शैली की दृष्टि से द्विवेदी जी के निबन्धो की तीन प्रमुख कोटियां हैं - वर्णनात्मक, भावात्मक और चिन्तनात्मक । यो तो द्विवेदी जी के सभी निबन्धों का उद्देश निश्चित विचारो का प्रचार करना रहा है और उन सभी में उन विचारों का न्यूनाधिक सन्निवेश भी हुआ है तथापि वर्णनात्मकता, भावात्मकता या चिन्तनात्मकता की प्रधानता के आधार पर ही इन तीन विशिष्ट कोटियों की भावना की गई हैं ।
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द्विवेदी जी के वर्णनात्मक निबन्धों के चार विशिष्ट प्रकार हैं - वस्तुवर्णनात्मक, कथात्मक, आत्मकथात्मक और चरितात्मक । वस्तुवर्णनात्मक निबन्ध प्राय: भौगोलिक स्थल-नगरजात्यादि या ऐतिहासिक स्थानो, इमारती आदि पर लिखे गए है, उदाहरणार्थ 'नेपाल', ' 'मलाबार', 'माची के पुराने स्तूप', 'बनारस' श्रादि । 'श्रतीत-स्मृति, 'दृश्यदर्शन, ' 'प्राचीन चिन्ह' श्रादि इसी प्रकार के निबन्धों के संग्रह हैं । द्विवेदी जी के अधिकाश कथात्मक निबन्धों में 'श्रीमद्भागवत', 'कादम्बरी' या 'कथासरित्सागर' की-सी कथा नहीं है । केवल कथा की शैली में घटनाओ, तथ्यां, संस्थाओ, यात्राश्री आदि का वर्णन किया गया है, यथा१. ' समालोचना - समुच्चय, प००१ ।
२ सरस्वती, १९११ ई० एप्रिल |
मई |
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जून |
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३. 'सरस्वती' १९११ ई०, प००७, ५०,
४ साहित्य-सन्दर्भ में संकलित ।
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हरयदर्शन' में सकक्षित
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