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प्रक्रिया सर्वथा स्वामाविक था इसका यह अथ नहीं है कि उसम प्रियप्रवास' और 'माकेत' तथा पंचवटी में कृष्ण और गम का मानवरूप में चरितचित्रण करने वाले अयोध्यासिंह उपाध्याय और नैथिलीशरण गुप्त ने उन्हे अवतार न मानकर मनुष्य रूप मे ही ग्रहण किया ! उन कवियो के श्रात्मनिवेदन में यह स्वयं मिद्ध है कि उन्होंने कृष्णा और राम को ईश्वर माना है ।' उन्हे महापुरुष के रूप में चित्रित करने का कारण यह है कि अाधुनिक युग का विज्ञानवादी संसार उन्हें ईश्वर स्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं था और उन कवियो को साहित्य-जगन् को ऐसी वस्तु देनी थी जो अबतारवादियों तथा अनवतारवादियो को समान रूप से रोचक और उपयोगी हो। ईश्वर के रूप में राम और कृष्ण का चरित्र अंकित करने से एक हानि भी हुई है। रामचरित मानस' या 'सूरसागर' का पाठक ईश्वररूप गम और कृष्णा का अनुकरण करने का कभी प्रयास नहीं करता क्योकि वह मान बैठा है कि राम और कृष्ण ईश्वर थे अतएव उनके कृत्य भी अतिमानवीय थे और उन कृत्यों का अनुकरण करना मनुष्य के लिए असम्भव है । वाल्मीकि और व्यास की भाति राम और कृष्ण को महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित करके द्विवेदी-युग ने हिन्दी-जनता के समक्ष अनुकरणीय चरित्र का श्रादर्श उपस्थित किया ?
द्विवेदी-युग के कवियों की दृष्टि अवतार तक ही सीमित नहीं रही। उन्होंने विश्वकल्याण और लोकसेवा को भी ईश्वर का आदेश और उसकी प्राप्ति का साधन समझा। इस रूप के प्रतिष्ठापक कवियों ने यह अनुभव किया कि भगवान् का दर्शन विलास और
भव की अानन्दभूमि मे रहकर नहीं किया जासकता, वह तो दीन दुखियों के प्रति महानुभूति और उनके दु:ग्व-निवारण में ही मिल सकता है, यथा---
मैं ढूंढता तुझे या जब कुंज और वन में। न खोजता मुझे था तब दीन के सदन में ॥ दू अाह बन किमी की नुझको पुकारता था। मैं था तुझे बुलाता संगीत में भजन मे ! मेरे लिए खड़ा था दुखियों के द्वार पर तू । मै बाट जोहता था तेरी किसी चमन में ॥२
३. उदाहरणार्थ प्रियप्रवाम' की भूमिका में हरिऔध जी ने कृष्ण को महापुरुष माना है, ईश्वर का अवतार नहीं। माकेत' के प्रारम्भ में मैथिलीशरण गुप्त भी कहते हैं
'राम तुम मानध हो. ईश्वर नहीं हो क्या ? २ अन्देषण --रामनरेश त्रिपाठी
माधुरी भाग , पर मम्मा ! १०॥