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मिश्र और शिनकुमारसि तथा प० गार्गदत्त, लक्ष्मीशंकर मिश्र, रामदीनमिह, रामकृष्ण त्रमा गदाधरसिंह आदि ने नागरीप्रन्वार की धूम पार्थ स० १६५५ में गजा प्रतापनारायण सिन राजा रामप्रतापसिंह, राजा बलवन्त सिंह. डा० सुन्दरलाल और ५० मदनमोहन मालवीय का प्रभावशाली प्रतिनिधिमंडल नाट साहब से मिला और नायरी का मेमोरियल अर्पित किया । मालवीय जी ने 'अदालती लिपि' और 'प्राइमरी शिक्षा' नामक अँगरेजी पुस्तक में नागरी का दूर रखने के दुष्परिणामों की बड़ी हा विस्तृत और अनुसन्धान पूर्ण मीमामा की ! मं १६५६ में नागरी प्रचारिणी सभा ने प्राचीन ग्रन्थों की खोज और कवियों के वृत्तों के प्रकाशन का कार्य आरम्भ किया। सं० १८५७ मे कचहरियो में नागरीप्रचार की घोषणा हो गई, परन्तु बहुत दिनों तक कार्य का रूप न धारण कर सकी। हिन्दीप्रचार का इतना उद्योग होने पर भी लोगों में मातृ-भाषा का का प्रेम न उमड सका । पढे लिखे लोग बोल चाल, चिहापत्री आदि में भी उडू या अँगरेजी का प्रयोग करते थे । हिन्दी गँवारू भाषा समझी जाती थी। सरकारी कार्यालयों में भी उसके लिये स्थान न था। घर में और बाहर सर्वत्र हो वह तिरस्कृत थी ।"
परिपक्व हिन्दी गद्य की दशा शोचनीय थी। १८३७ ई० में सरकारी कार्यालयों क भाषा फारमी के स्थान पर अप्रत्यक्ष रूप मे उर्दू हो गई । जीविका के लिए लोग देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा का विस्मरण करके अरबी लिपि और उर्दू मापा सोखते य भारतेन्दु के पूर्व एक प्रभावशाली अनुसरणीय नेता के अभाव में हिन्दी के किसी सर्वसम्मत रूप की प्रतिष्ठा न हो सकी। वह हिन्दी का संकटकाल था । उच्च शिक्षा का माध्यम अगरेजी और प्रारम्भिक का उर्दू था । अपने घर में भी हिन्दी की पूछ न थी । मभ्य कहलाने के लिये उद्या अँगरेजी जानना अनिवार्य था केवल हिन्दी जानने वाले गँवार समझे जाते थ । मर मैयद जैन प्रभविष्णु व्यक्ति उर्दू के समर्थक थे । राजा शिवप्रसाद के सतत उद्योग मे हिन्दी प्रारम्भिक शिक्षा का माध्यम हुई । समस्या श्री पुस्तको की । सदासुखलाल क 'मुखसागर' की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊ, इशाला की 'रानी केतकी की कहानी '
५, “उस समय हिन्दी हर तरफ दीन हीन थी । उसके पास न अपना कोई इतिहास था, न कोष, न व्याकरण | साहित्य का खजाना खाली पड़ा हुआ था। बाहर की कौन कह वाम अपने घर में भी उसकी पूछ और आदर न था । कचहरियों में वह न थी । कालेज में घुसने न पाती थी, स्कूलों में भी एक कोने में दबी रहती थी । हिन्दू विद्याथी भी उससे दूर रहते थे । अँगरेजी और उर्दू में शुद्ध लिखने बोलने में असमर्थ हिन्दी भाषी भी उसे अपनाने में अपनी छुटाई समझते थे । समा समाजों में भी माय उसका हिम्कार का था आज ६ नवम्बर ११२५ ई०