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________________ आदि में व्यक्तिगत आक्षेप भी है किन्तु उमका विबन्धन उचित नही प्रतीत होता । क द्विवेदी जी के प्रकृतिवर्णन में बस्तु की नवीनता नहीं है। 'ऋतुतरंगिणी', 'प्रभातवर्णनम्', 'सूर्यग्रहणम्', 'शरत्सायंकाल', 'कोकिल', 'वसन्त' आदि कविताश्रो में उन्होंने प्रकृति के रूढिगत विपयो को ही अपनाया है। उनका महत्व विधानशैली की दृष्टि से है । वस्तुतः द्विवेदी जी प्रकृति के कवि नहीं हैं । प्रकृति पर उन्होंने कुछ ही कविताएं लिखी हैं जिनका न्यूनाधिक महत्व ऐतिहासिक आलोचना की दृष्टि से है । भाव की दृष्टि में उनकी कविताओं मे कही तो प्रकृति का भावचित्रण हुअा है और कही रूपचित्रण ! भावचित्रण में उन्होंने प्रकृतिगत अर्थ का ग्रहण कराने का प्रपाम ओर रूपचित्रण में प्रकृति के दृश्यो का चित्र-सा अंकित किया है । मौन्दर्य की दृष्टि से द्विवेदी जी ने प्रकृति के कोमल और मधुर रूप को ही दवा है, उसके उग्र और भयंकर रूप को नहीं जैसा कि मुमित्रानन्दन पन्त ने अपने 'परिवर्तन' 3 में किया है। 'नुतरंगिणी' में ग्रीष्म का वर्णन यथार्थ होने के कारण द्विवेदी जी की उग्रताविपक प्रवृत्ति का द्योतक नहीं हो सकता। निरूपित और निरूपयिता की दृष्टि में द्विवेदी जी के प्रकृति-वर्णन में केवल दृश्य-दर्शक मग्बन्ध की व्यजना हुई है, तादात्म्यसम्बन्ध की नहीं । यही कारण है कि उनकी प्रकृतिविषयक कविताओं में गहरी अनुभूति की अपेक्षा वर्णनात्मकता ही अधिक है। विधान की दृष्टि में उन्होंने प्रकति-निरूपण दो प्रकार मे किया है--प्रस्तुत-विधान अोर अप्रस्तुत-विधान । उदाहरणार्थ-'तुतरंगिणी' आदि में प्रकृतिचित्रण ही कवि का लक्ष्य रहा है किन्तु 'काकृजितम्' अादि में अप्रस्तुत काक यादि के चित्रण के द्वारा कवि ने प्रस्तुत दुष्टो के चरित्रचित्रण का ही प्रयास किया है। विभाव की दृष्टि से उन्होंने प्रकृति का चित्रण दो रूपों में किया है-- उद्दीपनरूप में और अालम्बनरूप मे । रीतिकालोन परम्परा ने प्रकृति के विविध दृश्यों को श्र'गार के उद्दीपनरूप मे ही प्रायः अंकित किया था | जगमोहन सिंह और श्रीधरपाठक उसके पालम्बन-पक्ष की ओर भी प्रवृत्त हुए । प्राकृतिक दृश्यो का आलम्बनम्प में चित्राकन करके द्विवेदी जी ने इस १. २. यथा--कुमुदपुष्पसुवाससुवासिता, बकुलचम्पकगन्धविमिश्रिता । मदुल बात प्रभात भये बहै, मदनवर्द्धक अर्द्धकला कहै ।। द्विवेदी-काव्यमाला' पृ० ८२ । यथा---क्व मामनादत्य निशान्धारः पलाय्य पाप. किल यस्तीति । ज्यलन्निव कोधभरेण भानुरंगाररूप. सहसाचिरासीत् ।। _ 'द्विवेदी काव्यमाला पृ० १६६ । माधुनिक कवि २ में सकलित
SR No.010414
Book TitleMahavira Prasad Dwivedi aur Unka Yuga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaybhanu Sinh
PublisherLakhnou Vishva Vidyalaya
Publication Year
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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