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किन प्रत्येक काय इश्वर का देश समझ कर किया
उनकी तीव्र आलोचनाओ के आधार पर उन्हें उम्र और क्रोधी कहना मारी भूल है । साहित्य के ढीठ चोरी पर 'किन्तु परन्तु' और 'अगर मगर' वाली आलोचना का कोई प्रभाव न पडता | हिन्दी के वर्धमान कडा-करकट को रोकने के लिए उसी प्रकार की कटु आलोचना अपेक्षित थी ।
द्विवेदी जी ने अपनी माहित्यिक योग्यता का गर्व नहीं किया । तत्कालीन 'चाँद' सम्पादक मरसिह सहगल के एक पत्र से विदित होता है कि द्विवेदी जी ने उन्हें कोई अभिमान सूचक बात लिखी थी।'
उनके कमरे से अनेक अस्त्र शस्त्रों के अतिरिक्त एक फरमा टॅगा रहता था. जो उनके उग्र स्वभाव का द्योतक था । कदाचित् उसी को देख कर ही पं० वेंकटेशनारायण तिवारी ने उन्हें वाक्यशूर परशुराम कहा था । वे निस्सन्देह उम्र थे परन्तु उनकी उग्रता में अनौचित्य या अन्यान्य के लिए अवकाश न था । जब अभ्युदय प्रेस के मैनेजर ने अपने 'निबन्ध नवनीत' में द्विवेदी- लिखित प्रतापनारायण मिश्र का जीवनचरित और बाबू भवानीप्रसाद ने
१. १२ २३ ई०
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दोनों ही पत्र पड़ कर बहुत दुःख हुआ । यदि कोई जाहिल ऐसे पत्र लिखता नो कोई बात नहीं थी किन्तु मुझे दुःख इस बात का है कि आपके पत्र से सदा अनुचित अभिमान और तिरस्कार की बू आती है जो सर्वथा अक्षम्य है । यह सच है कि साहित्य में आपका स्थान बहुत ऊँचा है और बहुत काल से आप हिन्दी की सेवा कर रहे हैं, फिर भी आपको कोई अधिकार नहीं है, कि दूसरों को जो आपकी विद्वता के सामने कुछ भी नहीं है, उन्हे आप तुच्छ दृष्टि से देखें और इस प्रकार उनका निरादर करें। मैं ही क्या कोई भी श्रमाभिमानी इसे सह नहीं सकता। आप का लेख 'चाँद' में प्रकाशित होने से पत्र का मान बढ़ जायगा यदि आप का यह ख्याल है तो निश्चय ही आप का यह भ्रम है। आप जैसे सुयोग्य विद्वानों के लेख अन्य पत्रिकाओं की शोभा भले ही बा सके किन्तु मेरे पत्र के लेखक एक दूसरी ही श्रेणी के हैं और वे बहुत है । ...."
द्विवेदी जी के पत्र संख्या ४६, नागरी प्रचारिणी सभा कार्यालय,
काशी |
२ सरस्वती भाग ४०. सं० २, १०२११ ।
काशी नागरी प्रचारिणी सभा फलाभवन मंडल १
श्रभ्युदय
प्रेस क मॅनेजर
का लिखित पत्र की रूप रवा ।