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छठा अध्याय
STARA
निबन्ध
संस्कृत साहित्य में 'निबन्ध' शब्द प्रायः किसी भी रचना के लिए प्रयुक्त हुआ है, तथापि उममे भी निबन्धों की एक परम्परा थी जो भाष्य और टीका से प्रारम्भ होकर साहित्यिक धार्मिक, दार्शनिक श्रादि विषयों के विवेचन में परिणत हुई । उदाहरणार्थ पंडितराज जगन्नाथ का नित्रमीमासा-ग्वंडन एक आलोचनात्मक निवन्ध ही है । आधुनिक हिन्दी-निबन्ध के रूप या शेली पर संस्कृत के निबन्ध का कोई प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ा है । वर्तमान 'निबन्ध' शब्द अगरेजी के 'एसे' का समानार्थी है ! हिन्दी मे गद्यभापा तथा सामयिक पत्र-पत्रिका के साथ ही निबन्धलेखन का प्रारम्भ हुआ। राजनैतिक, धार्मिक, सामाजिक, वैज्ञानिक तथा माहित्यिक आदि विषयों पर जनता की जानवृद्धि की तत्कालीन अावश्यकता की पूर्ति के लिए पश्चिमीय पत्रों के अनुकरण पर निबन्ध लिन्वं गए । लेखको के साहित्यिक व्यक्तित्व की दुर्बलता, भाषा की अस्थिरता, पत्रपत्रिकाओं की आर्थिक दुर्दशा, अपेक्षित पाठकवर्ग की कमी आदि कारणो मे द्विवेदी जी के पहले हिन्दी में निबन्धो की उचित प्रतिष्ठा न हो पाई
और न उनके रूप और कला की ही कोई इयत्ता और ईदृक्का ही निश्चित हो मकी सम्पादक तथा पत्रकार के रूप में द्विवेदी जी ने संक्षित, मनोरंजक, सरल तथा ज्ञानवर्द्धक निबन्धों की जो शक्तिशाली परम्परा चलाई उसने निबन्ध को हिन्दी-साहित्य का एक प्रमुख अंग बना दिया। द्विवेदी जी की भापा और शैली अपने विभिन्न रूपों में विकसित होकर उस युग तथा भावी युग के निबन्धी की व्यापक भाषाशैली बन गई। हिन्दी-साहित्य के द्विवेदीयुगीन तथा परवर्ती निबन्धो की कलात्मकता और साहित्यिकता का निर्माण इसी भूमिका में हुआ।
लक्षण तथा परिभाषा बाद की वन्तुएं है। हिन्दी-निवन्धी के स्वरूप और विकास को समझने के लिए वर्तमान युग की पश्चमीय परिभाषाएं उधार लेने में काम नहीं चल मकता । हिन्दी में निबन्ध का न तो उतना विस्तृत इतिहाम ही है और न उसका प्रारम्भ वेकन में ही हुआ है । निबन्ध की यह पश्चमीय कसौटी कि वह व्यक्तित्व की मनोरंजक एवं कलात्मक अभिव्यक्ति है हिन्दी के लिए श्राप्त नहीं होमकती । यहाँ तो सीमित गद्यरचना म व्यक्त का गई सुसम्बद्ध विचार-परम्परा को ही निवध मानना अधिक समीचीन अनत