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सूक्तिया ही है मैत्री विज्ञापन आदि से प्रभावित गुणवाचक आलोचना मी रचनाकार और भावका का विशेष हित कर सकती है ।
द्विवेदी जी द्वारा सूक्तिपद्धति पर की गई आलोचनाऍ अपेक्षाकृत बहुत कम है 1 'महिपतक की समीक्षा' - जैसे लेख 'गर्दभकाव्य' और 'बलीवर्द' का औचित्य सिद्ध करने और "हिन्दी - नवरत्न " आदि दोपान्वेषण के यश से बचने के लिए ही लिखे गए जान पडते हैं । श्रीधर पाठक की 'काश्मीर-सुपमा', नैथिलीशरण गुप्त की 'भारत-भारती', 'गोपालशरण सिंह की कविता' आदि की जो आलोचनाएँ द्विवेदी जी ने की हैं वे वस्तुतः प्रशंसात्मक है | परम्परागत सूक्तिपद्धति और द्विवेदीकृत सूतिसमीक्षा में केवल रूप और ग्राकार का ही अन्तर है । द्विवेदी जी की आलोचनाएं गद्यमय और विस्तृत हैं । हा, प्रभावोत्पादकता लाने
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के लिए कहीं कही प्रशंसात्मक पदों की योजना अवश्य कर दी गई है । 3 द्विवेदी जी की सूक्तियो मे किसी प्रकार की मायिक्ता या पक्षपात नहीं है । ४ धर्मसंकट की दशा में जिस रचना की प्रशंसा करना उन्होंने अनुचित समझा उसकी आलोचना करना ही स्वीकार कर
दिया । "
९. 'सरस्वती', १६१२ ई०, पृ० ३० ।
२. ये तीनों आलोचनाएँ 'सरस्वती' में क्रमश: जनवरी, १९०५ ई०, अगस्त, १९५४ ई० और सितम्बर, १९१४ ई० में प्रकाशित हुई थीं ।
३.
"यही स्वर्ग सुरलोक यही सुरकानन सुन्दर |
यहि अमरन को लोक, यही कहुँ बसत पुरन्दर ||
ऐसे ही मनोहर पद्यो में आपने 'काश्मीर - पुपमा' नाम की एक छोटी सी कविता लिखकर प्रकाशित की है काश्मीर को देखकर आपके मन मे जो जो भावनाएं हुई है उनको उसमे ग्रापने मधुमयी कविता में वर्णन किया पुस्तक के अन्त में आपकी ' शिमलागम्' नाम की एक छोटी सी संस्कृत कविता भी हैं । हम कहते हैं कि---
ताहि रसिकवर सुजन अवसि अवलोकन कीजै । मम समान मनमुग्ध ललकि लोचनफल लीजै । " 'सरस्वती', भाग ६, पृ० २ ।
४ " मित्रता के कारण किसी की पुस्तक को अनुचित प्रशंसा करना विज्ञापन देने के सिवा और कुछ नहीं ।"
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द्विवेदी जी - 'विचार-विमर्श ', पृ० ४५ ।
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५. 'साधना' उत्कृष्ट छपाई और बंधाई का आदर्श है । देखकर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ बाबू मैथिलीशरण पर और ग्राप पर भी मेरा जो भाव है वह मुझे इस पुस्तक की समालोचना करने में बाधक है । अपनी चीज को समालोचना ही क्या ? अतएव क्षमा कीजिएगा ।"
दास को लिखित २१७१६१८ ६० सरस्वती' भाग ४६ स० २,
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