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कहीं झील किनार बड़े बन ग्राम, महम्य निव स पने य ग्यपरेली में कद्द करेली की वेल के खूब तनाव तने हुए थे। जल शीतल अन्न जहाँ पर पाकर पक्षी घरों में घने हुए श्रे,
सब अोर स्वदेश, स्वजाति, समाज भलाई के ठान ठने हुए थे।' जहा बाह्य जगत को अन्तर्जगत् का प्रतिबिम्ब मानकर कवि या कवि कल्पित पात्र ने प्रकृति की अभिव्यक्ति मे अपने हृदय की अभिव्यक्ति का दर्शन किया है, वहा तादात्म्य-सम्बन्ध की व्यंजना हुई है यथाः
चातक की चकित पुकारे श्यामा ध्वनि तरल रसीली ।
मंग करणाद्र कथा की टुकडी पासू से गीली ॥ विधान की दृष्टि से द्विवेदी-युग की कविता में प्रकृति चित्रण प्रस्तुत और अप्रस्तुत दो रूपो म हुआ। प्रस्तुत विधान की विशेषता यह थी कि उसमें प्रकृति चित्रण कवि का निश्चित उद्देश था ! जहाँ प्रकृति अालम्बन रूप में अंकित की गई वहां तो वह वर्ग य विषय थी ही किन्तु जहा वह उद्दीपन रूप में अंकित हुई वहा भी वास्तविक वय विषय उपस्थित था। अप्रस्तुत-विधान की विशेषता यह थी कि उसमें प्रकृति-चित्रण कवि का उद्देश नहीं था। प्रकृति-चित्रण व्यंजक और उपस्थित मुख्य विषय व्यग्य था। लक्षणा, उपमा, रूपक आदि की सहायता से प्रस्तुत विषय में रमणीयता लाने के लिए ही उसकी योजना की गई, उदाहरणार्थ:--
देखा बौने जलनिधि का शशि छूने को ललचाना।
वह हाहाकार मचाना फिर उठ उठ कर गिर जाना १४ रीतिकालीन शृंगारिक कविताएं प्रायः परप्रसन्नता-साधक, वस्तुवर्णनात्मक, वासनाप्रधान, सीमित और नखशिख-वर्णन नायक-नायिकामेद आदि के रूप मे लिखी गई थीं। उनका यह प्रवाह भारतेन्दु-युग तक चलता रहा। द्विवेदी जी के कठोर अनुशासन ने रतिव्यंजना की इस धारा को सहमा रोक दिया । परन्तु मानव-मन की सहज प्रेम-प्रवृति को रोकना असम्भव था। द्विवेदी युग के कवियो की प्रेम भावना परिवर्तित और संस्कृत रूप में व्यक्त हुई। यह द्विवेदी जी के आदेश का प्रभाव था। उनके युग की प्रेम प्रधान कवितानो में घोर शृंगारिकता, असंयम. व्यक्तिगतत्व, वासना आदि के स्थान पर शिष्टता, संयम, व्यापकता,
, रूपनारायण पांडेय-प्रमा', भाग १. पृष्ट ३३७ । २ जयशंकर प्रसाद--'श्रांसू' । ३ यया शुक्र का हृदय का मधुर मार और प्रियश्वास का प्रकृति-वचन ५ प्रोसू
प्रमाद