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जब पिक दिखलाती शब्द की चातुरी जब पिक दिग्वलानी शब्द की चानुरी है।
(न्त्र )पय प्रकटल सुन्दर छवि तेरी,
पर लरी छवि देव जान की, ज्ञान ध्यान विस्मृत हो जाये।
गरिमा गुम हो जाती है। मुध बुध रहै न कुछ भी अपनी,
सुध बुध रहती नहीं चित्त मे, न ही तू मन में बस जावे ॥२
तृ ही तू बस जाती है।। (ग) एक नयन कर लगत हमारा,
नयन बाण तरा लगते ही, चित पानी पानी हो जाता।
दिल पानी पानी हो जाता है। 'क' की मौलिक पंक्ति विशेष चिन्त्य है । 'बह मय ही का हो', इस बायाश का क्या अर्थ है ? उस पंक्ति में अर्थ या पद सौन्दर्य भी नहीं है । अत्यानत्रास भी अधम कोटि का है। सशोधित पद में प्रसाद और माधुर्य के कारण विशेष मौन्दर्य आ गया है। मुन्दर अन्न्यानुप्रास ने उसे और भी उत्कृष्ट बना दिया है : 'ख' की मौलिक प्रथम पंक्ति से प्रकट होता है कि कवि का अभिप्राय आशीर्वादात्मक वाक्य-कथन नहीं है। वह अपनी बात मामान्य वर्तमान में ही कहना चाहता है किन्तु उनकी भाषा उसके अभीष्ट अर्थ की व्यंजना करने में असमर्थ है । मंशोधित पद में उसकी यह अर्थहीनमा दूर कर दी गई है । 'ग' को मौलिक प्रथम पंक्ति में हमारा' सर्वनाम का प्रयोग इस अर्थ का द्योतक है कि कवि का नयनशर लगते ही लोगों का चित्त पानी पानी हो जाता है । किन्तु यह अर्थ कवि के तात्पर्य के विपरीत है । कविता तरुणी को संबोधित करके लिग्वी गई है और कवि कहना चाहता है कि तुम्हाग नयनशर लगने ही मेरा चित्त पानी पानी हो जाता है । वह इस बात को ठीक कह नहीं सका है। संशोधित पंक्ति इन अर्थ को स्पष्ट कर देती है।
द्विवेदी जो के मद्योग में हिन्दी काव्यभाषा की क्लिष्टता, जटिलता और असमर्थता दृर हो गई। इसका प्रमाण अागे चलकर 'जयद्रथयध', 'भारत-भारती', 'प्रियप्रवास', 'माधवी', 'पथिक', 'पंचवटी' आदि रचनाओं में मिला। द्विवेदी जी के शिष्य मैथिलीशरण की प्रसन्न कविताओं ने लोगों को हिन्दी और ऋविता ने प्रेम करना मिग्याया। द्विवेदी युग के पूर्वाद्ध में अधिकाश ऋत्रियों की भाषा व्याकरण-विरुद्ध प्रयोगो में व्याप्त थी। द्विवेदी , कोकिल'-सेठ कन्हैयालाल पोहार-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६.१०,
कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा। २. तरुणी'-गंगासहाय--सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६०४ ई०
कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा। ३ 'तरुणी गंगासहाय-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां ११००,
नागरी प्रचारिणी सभा