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सीमुपदेश और पशोधन द्वारा उमर पारेकार कया एक दो उदाहरण अबलोकनीय
संशोधित (क) मिला अहो मंजु रसाल डाल से मिला अहो क्या सुरसाल डाल से ?
तथैव क्या गुंजित भृगमाल से ?' किंवा किसी गुंजित भृगमाल से ? (ख) अोढ़े दुशाले अति उष्ण अंग, अच्छे दुशाले, सित, पीत, काले,
धारें गरू वस्त्र हिये उमंग : हैं श्रोढ़ते जो बहुवित्त थाले । तो भी करें हैं सब लोग सी, सी, तौ भी नहीं बन्द अमन्द सी, सी,
हेमन्त में हाय कंपे बतीसी । हेमन्त में है कंपती बतीसी ।। पहले उदाहरण की प्रथम मौलिक पंक्ति में कोई प्रश्नवाचक सर्वनाम नहीं है और फिर भी प्रश्नवाचक चिन्ह लगाया गया है। उसकी द्वितीय पंक्ति में तथैव' की योजना सर्वथा असंगत है। संशोधित पद में 'क्या' और 'किवा' के व्याकरणसंगत प्रयोग से अधिक लालित्य श्रागया है। दूसरे उदाहरण में 'श्रो', 'धारे आदि क्रियारूपों का प्रयोग गलत हुआ था । 'कर है' और 'कंपे' के रूप भी खड़ीबोली की दृष्टि से अशुद्ध हैं । संशोधित पद में 'तो' का प्रयोग गलत है, किन्तु उस काल में 'श्री' के स्थान पर 'श्री' का प्रयोग करने की व्यापक प्रवृत्ति थी जिसका निश्चित सुधार द्विवेदी-युग के उत्तरार्द्ध मे हुश्रा । कभी कभी तो तुश्कड़ पद्मकर्ता छन्द की गति और यति की अवहेलना करके अपना तूफान मेल निर्बाध गति से छोड़ देते थे. उदाहरणार्थ:
नुव दरसन ही प्रेम उमारे,
तुलना अनुभव यहां मिवाता है। और द्विवेदी जी को इस प्रकार की तुकचन्दियों की निर्दयतापूर्वक शल्य-चिकित्सा करनी पड़ती थी। द्विवेदी जी ने कवियों से विषयानुकूल शब्द स्थापना, अक्षरमैत्री, क्रमानुसार पद योजना आदि का भी अनुरोध किया। द्विवेदी-युग के प्रथम चरण की 'सरस्वती' मे १. 'कोकिल'-कन्हैयालाल पोहार-सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां ११०४ ई०.
कला भवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा । २. 'हेमन्त'-मैथिली शरण गुप्त सरस्वती की हस्तलिखित प्रतियां १६०५ ई० । ६. 'तरुणी'- गंगासहाय---सरस्वती की हरनलिखित, प्रनियां १६० ई०
कलाभवन, काशी नागरी प्रचारिणी सभा ४. विषय के अनुकूल शब्दस्थापना करनी चाहिए 'शब्द चुनने में अक्षरमैत्री का विशेष विचार रखना चाहिए "शब्दों को यथा स्थान रखना चाहिए।"
रसशारजन, पृष्ट ६ .