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कल्पित छन्दों का भी प्रयाग किया मय+नत्रक' और दिनेश दशक कविताला म शादूलबिक्रीडित की छाया लेकर मात्रा वृत्त में ग्रतुकान्त कविता का एक नूतन और अनूठा उद्योग किया ।' 'इन्दु' की चौथी और विशेषकर पाचवी कलाओं में राय कृष्णदास, जयशंकर प्रसाद मुकुटधर पांडेय आदि की अनेक अन्त्यानुप्रासहीन कविताएँ प्रकाशित हुई । सं० १९७० में जयशंकरप्रसाद का 'प्रेम-पथिक' और १६७१ में हरिऔध जी का 'प्रियप्रवास' अतुकान्त वृत्ता में प्रकाशित हुए । इस प्रकार हिन्दी में अतुकान्त कविता का रूप मान्य और प्रतिष्ठित हो गया |
ध्वन्यालोककार आनन्दवर्द्धन आदि संस्कृत-साहित्य-शास्त्रियों ने रसभावानुकुल वृत्ता के प्रयोग की आवश्यकता पर विशेष जोर दिया था । द्विवेदी जी ने भी कविता के इस आवश्यक पक्ष की ओर कवियों का ध्यान आकृष्ट किया | ३ द्विवेदी युग के प्रारम्भिक वर्षो मे पंडित, असिद्ध और यशः कामी कवियों ने टूटी-फूटी तुक बन्दियों के द्वारा ही यश लूट लेने का प्रयास किया । 'सरस्वती' की हस्तलिखित प्रतिया इस बात की साक्षी हैं। कुछ ही वर्षो में भाषा का परिमार्जन हो जाने पर सिद्ध कवियों ने इस ओर पूरा ध्यान दिया । अयोध्या सिह उपाध्याय ने प्रियप्रवास' में रमभावानुकुल छन्दों का प्रयोग किया । यथा, शृंगार और करुण की व्यंजना के लिए द्रुतविलम्बित, वियोग वर्णन में मालिनी और मन्दाक्रान्ता, उत्साह के योग मे वंशस्थ आदि । मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, जयशंकरप्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत आदि कवियों ने भी भावानुकूल छन्दो में कविताएं की।
द्विवेदी जी ने भाषा की सरलता और सुबोधता पर पर्याप्त ध्यान दिया ! 3 अपने सम्पादनकाल के प्रारम्भिक वर्षो में उन्हें काव्य-भाषा का भी कायाकल्प करना पड़ा । उन्होंने कवियो को केवल उपदेश ही नहीं दिया, उनकी अर्थहीन या अनर्थकारिणी भाषा का आदर्श संशोधन भी किया । निम्नांकित उद्धरण विशेष अवेक्षणीय है
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मूल
संशोधित
(क) रव वह सब ही का हो तभी व्यर्थ ही है, कलरव गति सब की भाम होती बुरी है । १. उदाहरणार्थ, राका रजनी के समान रंगिरिण जिसकी मनोहारिणी । रूपवती रोहिणी आदि जिसको हैं सप्तविशति प्रिया | हा जगदीश्वर । वह कबोकपति मी गुरु-वाम- गामी हुआ । कामीजन का अवरणीय कुछ भी संसार में है नहीं || 'कव्योपवन', मयंकनवक पृष्ठ ७२ ।
२ " वर्णन के अनुकूल वृत्त प्रयोग करने से कविता का यास्वदान करने वालों को अधिक आनन्द मिलता है - " 'रसज्ञरंजन' पृ० २ कचि को ऐसी भाषा विखमी चाहिए जिस सब काई सहज में समझ ल और पर्य रमझर जन प्र० ५
कर सक
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