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र भिन्न-पीड़ित नना का करुणाकारक चित्र विशेष ममस्पर्शी है
लोचन चल गए भीतर कहँ, कंटक सम कच छाए । कर में ग्वापर लिए अनेकन जीरण पट लपटा । मांसविहीन हाड़ की ढेरो, भीषण भेष बनाए , मनह प्रबल दुर्भिक्ष रूप बहु धरि विचरत सख पाए ।। शक्ति नहीं जिनके बोलन की, तकि नकि मुँह फैलावै, मीक समान पैर लीन्हे बहु, रोवन गोबर खावै । गुठुली ग्वान हेत वेरन की, ढूँढन सोउ न पावै,
पग पग चलै गिरै पग पग पर, आरन नाद सुनावै ।। 'कान्यकुब्ज-लीलामतम्' का पहला ही पद पावडी कान्यकुब्ज ब्राह्मण की हृदयसंवादी परेवा ग्वींच देता है---
मदैवशुक्लारुणपीतवर्णपाटीरपंकावृतसर्वभाल !
आभूतलालम्बिदुकूलधारिन ! हे कान्यकुब्जद्विज ! ते नमोस्तु ।। 'काककृजितम्' मे दुष्टों के हृदय में स्थित ईर्ष्या और निन्दाभाव की सुन्दर निबन्धना की गई है, यथा
त्वं पंचमेन विमनं विजहोहि नूनं
वक्तुं वर्मतसमयेपि न तेधिकारः । सम्प्रत्यहं दशसु दिनु मदा सहर्ष
तारम्वरेण मघुरेण रवं करिष्ये ॥3 माहित्यमर्मजो ने निर्विवादरूप में वनि को श्रेष्ठकाव्य माना है। द्विवेदी जी की कविता मे व्यंग्यार्थ की सुन्दरता भी कम नहीं है । 'कान्यकुब्जलोलामृतम्', 'ग्रन्थकारलक्षण' आदि में काक्वाक्षिप्त व्यंग्य की मनोहता है, यथाइसी सम्बन्ध में 'सुदर्शन'-मम्पादक माधवप्रसाद मिश्र ने द्विवेदी जी को लिखा था
"लाला मीतागम के अायुष्मान् का धन्य है जिसकी वात पर आपने अपनी प्रतिभा का निर्दशन तो दिखाया। पर इतने तर्जन गर्जन और ग्रास्फालन का यही फल न हो कि श्राप दम यों ही अधूग छोड दे।"
-द्विवेदी जी के पत्र, संख्या ११८३, काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा का कार्यालय । 1. 'द्विवेदी-काव्यमाला', पृ० १७५ ।
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