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हिन्दी का लाकन किया था इस हिदी अनुनाद की भी दशा अत्यन्त शोपनीय
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द्विवेदी जी के इन अनुवादा की मापा प्राजल और वोधगम्य, शब्दस्थापना गौण तथा भाव ही प्रधान है। भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए शब्दों के छोड़ने और जोड़ने मे उन्होने स्वच्छन्दता में काम लिया है। ग्रावालवृद्धवनिता सबके पठनयोग्य बनाने के लिए विशेष शृंगारिक स्थलों का या तो परित्याग कर दिया है या परिवर्तित रूप में प्रकारान्तर में उल्लेख किया है । विशिष्ट संस्कृत- पदावली के कारण चमत्कारपूर्ण श्लोकों के अनुवाद में मूल की सरसता की रक्षा नहीं हो सकी है। भावान्तर के इस असम्भव कार्य के लिए अनुवादक तनिक भी दोपी नहीं है। एकाध स्थलों पर द्विवेदी जी द्वारा किया गया ग्रर्थ सुन्दर नहीं जचता । फिर भी, इसके कारण, उनके अनुवादों की महत्ता और उपयोगिता में
१. यथा-
गांगण शेपराधि के विवरण स्थान में प्रत्यावर्तन करने वेग से भूपथ दौड नहीं सकती थीं २. यथा - 'प्रियानितम्वोचितसन्निवेशे:' (वंश, ६, ७), दुर्योधन और मानुमती का विलास (बेणीमहार, अंक २) आदि छोड़ दिए गए है । ३ यथा - ननोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु । तुन्नो नुन्नो ननुन्नेनो नान्नो सुन्नमुन्नत ॥ daaifafa araढे वाहिकान्ववकाहि वा । काकारे समरे काका निस्वभव्यव्यमस्वनि ॥ विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्जयाः । विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः ||
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४. यथा -- कालिदास की मूल पंक्ति थी-
हरिचक्रेण तेनास्य कंठे निष्कमिवार्पितम् ।
१५, १८ ।
३५. २५ ।
१५, ५२ ।
कु० म०, मर्ग २ |
द्विवेदी जी ने अर्थ किया-
"कंठ काट देना तो दूर रहा वह चक्र वहाँ पर वैसे ही कुछ देर चिपका रहा और तारक के कंठ का श्राप बन गया ।"
सुर्दशन का तारक के कंठ में चिपक कर निष्क (कंठहार) की भाँति श्रभूप बनना सर्वथा असंभव और असंगत जंचता है । इसमें कोई मौदर्य नहीं है। उपयुक्त पक्ति का अर्थ इस प्रकार होना चाहिए
तारक के कंठ को काटने में श्रममर्थ चक्रसुर्दशन उसके कंठ के चारों और टकराता रहा। इस टक्कर से उत्पन्न चिनगारियों ने तारक के कंठ से चमकता हुआ हर सा पहना दिया |
कालिदास के मीम व कसे करते हुए माघ ने लिखा