________________
मेरी बातें" श्रादि निबधों में भी सलापा मक शैली का सुन्दर रूप व्यक्त हुआ है इस शैली के लेखों में हिन्दी, उर्दू या हिन्दुस्तानी का स्वच्छन्द्र प्रयोग हुअा है। गय कृष्णदास वियोगी हरि आदि के अनेक गद्यगीत भी इस शैली से विशिष्ट है ।।
ठोस ज्ञान की अभिव्यंजन की दृष्टि ने विवेचनात्मक शैली का साहित्य मे विशिष्ट स्थान है। इस शैली का लेखक अपने निश्चित विचारों को निश्चित शब्दावली के द्वारा सारगर्मित ढंग से व्यक्त करता है। अन्य शैलियों से इस शैली की मुख्य विशिष्टता यह है कि इसमें विशेष विवेचन की सूक्ष्मता और विचारों की गहराई अपेक्षाकृत अधिक होती है। अन्य शैलियों में संवेदनात्मकता का भी बहुत कुछ पुट रहता है किन्तु विवेचनात्मक शैली हृदय संवादी न होकर मस्तिष्क प्रधान ही है । श्यामसुन्दरदास, पदुमलाल घुन्नालाल बख्शी गोरीशंकर हीरा चन्द अोझा, चन्द्रधर शर्मा गुलेरी आदि के चिन्तनात्मक लेग्यो में इस शैली का अच्छा विकास हुआ है । रामचन्द्र शुक्ल के चिन्तनात्मक निबन्ध उन्हें निर्विवाद रूप से शैली का महत्तम द्विवेदी-युगीन लेखक सिद्ध करते हैं । द्विवेदी-युग के विवेचनात्मक शेली के लेखको की भापा प्रायः संस्कृत-प्रधान ही है । अपनी विचार-व्यंजना को असमर्थ समझकर पदुमलाल पुन्नालाल बरब्शी, रामचन्द्र शक्ल अादि ने कहीं कहीं कोष्टक और कहीं कहीं वाक्यक्रम में ही अँग्रेजी के पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग किया है।
भावात्मक शैली की विशेषता काव्यमयी भावव्यंजना है। इस शैली के लेखको ने भावा की कोमलता के कारण तर्कसंगत शब्दावली के स्थान पर हृदयहारी कोमल कान्त पदावली के सन्निवेश पर ही विशेष ध्यान दिया है। इसके दो प्रधान रूप परिलक्षित होते हैं । पहला रूप 'कादम्बरी' आदि संस्कृत गद्यकाव्यो से प्रभावित चंडीप्रमाद हृदयेश, गोविन्द नारायण मिश्न
आदि की आलंकारिक शैली है जिसमें उपमा, रूपक, अनुप्रास अादि अलंकारो की योजना द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन का प्रयास किया गया है ।इस का उत्कृष्टतम रूप हृदयेश जी की रचनाओ में ही है । कुछ लेखको ने कहीं कहीं बरबस और अतिशय अलंकार-योजना के द्वारा भाषा और भाव के सौन्दर्य का नाश कर दिया है, यथा जगन्नाथ प्रसाद चतुर्वेदी ने 'अनुप्राम का अन्वेपण ३ लेख मे। इस शैली का दूसरा रूप पूर्णसिह, रायकृष्णदास, वियोगीहरि, चतुरसेन शास्त्री आदि की निरलंकार या यत्र तत्र अनायास ही अलंकृत, प्रसाद, माधुर्यमयी मार्मिक भाव व्यंजना में मिलता है । 'मजदूरी और प्रेम', 'साधना', 'अन्तर्नाद', 'अन्तस्तल' आदि रचनाएँ इस शैली की दृष्टि में विशेष उदाहरणीय है। १. 'सरस्वती' १६०४ ई०, पृष्ठ ५४० । २. उदाहरणार्थ 'विश्व-साहित्य', और 'जायसी-ग्रन्थावली' की भूमिका । ३ छटे हिन्दी
का - भाग २ पृ० १६